ख़ौफ़-ए-अज़ल रहा होगा
जनाज़ा हसरतों का निकल रहा होगा।।
ये वक्त भी यहां करवट बदल रहा होगा।
खुली किताब सी है ज़िन्दगी भी यूं मेरी।।
पता नही उन्हें सच मेरा खल रहा होगा।।
मक़ाम उनका बहुत आसमाँ सा ऊँचा हैं।।
नज़र से गिरके वो अपनी सम्भल रहा होगा।।
नक़ाब से ऐसे महफूज़ खुद किया उसने।।
एक बोसे के लिये आईना मचल रहा होगा।।
सुना हैं ख़्वाब को आंखों में लेके चलते हो
टूटना ख्बाब का तुमको तो खल रहा होगा।।
किनारें पे भी थोड़ा शोर तो हुआ होता।।
मुझे उम्मीद है....कोई फिसल रहा होगा।।
उड़ा के ले गई मेरी तमाम हसरत भी
उसे कभी नही ख़ौफ़-ए-अज़ल रहा होगा।।
-आकिब जावेद
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