मैथिलीशरण गुप्त की पंचवटी प्रसंग की व्याख्या
Maithilisharan gupt ki kavita pnchavati ki vyakhya
पंचवटी प्रसंग
1◆ चारु चंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चंद्री बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झूम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
व्याख्या:- रात का समय है आकाश में चाँद निकला हुआ है। चन्द्रमा की सुंदर ज्योतिर्मय किरणे पृथ्वी पर सुशोभित हो रही है। नदियों, तालाबो के जल में चंद्रमा की किरणों की छाया पड़कर बड़ी मनोहर लग रही है। चाँदनी का स्वच्छ निर्मल प्रकाश आकस से लेकर धरती तक फैला हुआ है। जमीन में हरी हरी घास उगी हुई है। जिसकी छोटी छोटी उठी हुई नोंको को देखने से लगता है :- मानो प्रसन्नता के अतिरेक से पृथ्वी को रोमांच हो आया है। हवा के मन्द झोंको से हिलते पेड़-पौधों को देखने से प्रतीत होता है, मनो वे आनन्द से झूम रहे है।
2■ पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
व्याख्या :- पाँच प्रकार के वृक्षों की छाया मे घास फूस की सुंदर झोंपड़ी बनी हुई है। झोपड़ी के सम्मुख एक साफ सुथरी चट्टान पर एक बलवान, साहसी और निडर योद्धा हाथ में धनुष बाण लेकर बैठा है। आधी रात के समय, जब सारी दुनिया गहरी नींद में सो रही है यह युवक जाग रहा है उसे देखने से लगता है,जैसे सांसारिक सुखों में लिप्त रहने वाले कामदेव ने योगी का वेश बना लिया है। यहाँ योगी वेश मे स्थित लक्ष्मण को भोगी कामदेव से उपमित किया गया है। लक्ष्मण भी सुंदर है,कामदेव भी सौंदर्य के देवता है। लक्ष्मण के हाथों मे धनुष है और कामदेव के हाथो में भी फूलों का धनुष रहता है।
3■ किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है॥
व्याख्या :- कुटी के बाहर पहरा देने वाला यह वीर युवक निंद्रा का त्याग करके रातभर जागकर अपने किस संकल्प का निर्वाह कर रहा है। उसने कौन-सा व्रत ले रखा है, जिसका वह इस प्रकार पालन करता है। उसके लक्षण बताते है कि वह राजोचित सुखों का भोग करने के योग्य है,फिर भी उसने उन सुखों को स्वेच्छा से त्यागकर वैराग्य ले रखा है। आखिर उस कुटिया में ऐसा कौन सा अमूल्य धन छिपा हुआ है, जिसकी रक्षा के लिए वह पहरा दे रहा है और अपने तन मन तथा जीवन को उसने अनुरक्त कर दिया है।
4◆ मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
व्याख्या :- संसार का पाप दोष, दु:ख- दैन्य मिटाने के लिए अपने पति (श्रीराम) के साथ जो (सीता जी) आयी है, वे तीनों लोकों की लक्ष्मी है| संसार का सारा धन, ऐश्वर्य, उन्ही से उत्पन्न हुआ है, साक्षात लक्ष्मी ही जंगल में स्थित कुटिया में निवास करती है। वीरवंश (रघुवंश) की यही मर्यादा है जब कुलवधू अरक्षित क्षेत्र में निवास करे, तो उसकी सुरक्षा की जाये। फिर रघुवंश का वीर जब उसके साथ हो, तो वह प्रहरी बनकर उसकी रक्षा क्यों न करे? एक तो सुनसान जंगल, दूसरे अर्धरात्रि का समय और तीसरे राक्षसों द्वारा क्षण क्षण की जाने वाली छल कपट लीला का भय। इसीलिए यह वीर तीनों लोकों की लक्ष्मी की रक्षा करने के लिए कुटी के बाहर पहरा दे रहा है।
5■ क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप
व्याख्या :- निर्मल चाँदनी का प्रकाश कितना सुंदर और मनमोहक लग रहा है, रात्रिकालीन वातावरण कितना शांत और नीरव है, मन्द और सुगन्ध पवन प्रवाहित हो रहा है, चारों दिशाओं में सुख और आनन्द का वातावरण है। समयचक्र अब अपने सभी कार्य कर रहा है लेकिन वह सब अव्यक्त भाव से होता है। देखने मे सब कुछ शांत लगता है, किन्तु कालचक्र का कोई काम रुका नही है।
6◆ है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है॥
व्याख्या :- अर्धरात्रि के समय जब सारा संसार निंद्रा में निमग्न हो जाता है, तब चारों ओर मोती-जैसी ओस की बूँदे बिखर जाती है। प्रातः काल सूर्य की धूप फैलने पर पुनः ओस की बूंदे सूख जाती है, मानो सूरज ने मोतियों को इकट्ठा कर लिया हो। सायंकाल होने पर पुनः सूर्य अपने द्वारा इकठ्ठे किये उन मोतियों को सन्ध्या को दे देता है, जिससे वह अपने साँवले और दुबले शरीर का पुनः श्रृंगार करती है। इस तरह ओस की बूँदों का मोती की तरह बिखरना, पुनः सूरज की धूप से उनका सुखना और फिर रात होने पर उनके बिखरने का क्रम सदैव चलता रहता है।
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