दुष्यंत कुमार के ग़जल की व्याख्या
1.
कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरखतों के साय में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चल और उम्र भर के लिए।
सन्दर्भ :- -प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित ‘गजल’ से उद्धृत हैं। यह गजल दुष्यंत कुमार द्वारा रचित है। यह उनके गजल संग्रह ‘साये में धूप’ से ली गई है।
प्रसंग :- इस गजल का केंद्रीय भाव है-राजनीति और समाज में जो कुछ चल रहा है, उसे खारिज करना और नए विकल्प की तलाश करना।
व्याख्या-कवि कहता है कि नेताओं ने घोषणा की थी कि देश के हर घर को चिराग अर्थात् सुख-सुविधाएँ उपलब्ध करवाएँगे। आज स्थिति यह है कि शहरों में भी चिराग अर्थात् सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। नेताओं की घोषणाएँ कागजी हैं। दूसरे शेर में, कवि कहता है कि देश में अनेक संस्थाएँ हैं जो नागरिकों के कल्याण के लिए काम करती हैं। कवि उन्हें ‘दरख्त’ की संज्ञा देता है। इन दरख्तों के नीचे छाया मिलने की बजाय धूप मिलती है अर्थात् ये संस्थाएँ ही आम आदमी का शोषण करने लगी हैं। चारों तरफ भ्रष्टाचार फैला हुआ है। कवि इन सभी व्यवस्थाओं से दूर रहकर अपना जीवन बिताना चाहता है। ऐसे में आम व्यक्ति को निराशा होती है।
2.
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढक लगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं, न सही, आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीन नजारा तो हैं नजर के लिए।
सन्दर्भ :- -प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित ‘गजल’ से उद्धृत हैं। यह गजल दुष्यंत कुमार द्वारा रचित है। यह उनके गजल संग्रह ‘साये में धूप’ से ली गई है।
प्रसंग :- इस गजल का केंद्रीय भाव है-राजनीति और समाज में जो कुछ चल रहा है, उसे खारिज करना और नए विकल्प की तलाश करना।
व्याख्या-कवि आम व्यक्ति के विषय में बताता है कि ये लोग गरीबी व शोषित जीवन को जीने पर मजबूर हैं। यदि । इनके पास वस्त्र भी न हों तो ये पैरों को मोड़कर अपने पेट को ढँक लेंगे। उनमें विरोध करने का भाव समाप्त हो चुका है। ऐसे लोग ही शासकों के लिए उपयुक्त हैं, क्योंकि इनके कारण उनका राज शांति से चलता है। दूसरे शेर में, कवि कहता है कि संसार में भगवान नहीं है तो कोई बात नहीं। आम आदमी का वह सपना तो है। कहने का तात्पर्य है कि ईश्वर मानव की कल्पना तो है ही। इस कल्पना के जरिये उसे आकर्षक दृश्य देखने के लिए मिल जाते हैं। इस तरह उनका जीवन कट जाता है।
3.
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बकरार हूँ आवाज में असर के लिए।
तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये एहतियात जरूरी हैं इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
सन्दर्भ :- -प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित ‘गजल’ से उद्धृत हैं। यह गजल दुष्यंत कुमार द्वारा रचित है। यह उनके गजल संग्रह ‘साये में धूप’ से ली गई है।
प्रसंग :- इस गजल का केंद्रीय भाव है-राजनीति और समाज में जो कुछ चल रहा है, उसे खारिज करना और नए विकल्प की तलाश करना।
व्याख्या-पहले शेर में कवि आम व्यक्ति के विश्वास की बात बताता है। आम व्यक्ति को विश्वास है कि भ्रष्ट व्यक्तियों के दिल पत्थर के होते हैं। उनमें संवेदना नहीं होती । कवि को इसके विपरीत इंतजार है कि इन आम आदमियों के स्वर में असर (क्रांति की चिनगारी) हो। इनकी आवाज बुलंद हो तथा आम व्यक्ति संगठित होकर विरोध करें तो भ्रष्ट व्यक्ति समाप्त हो सकते हैं। दूसरे शेर में, कवि शायरों और शासक के संबंधों के बारे में बताता है। शायर सत्ता के खिलाफ लोगों को जागरूक करता है। इससे सत्ता को क्रांति का खतरा लगता है। वे स्वयं को बचाने के लिए शायरों की जबान अर्थात् कविताओं पर प्रतिबंध लगा सकते हैं। जैसे गजल के छद के लिए बंधन की सावधानी जरूरी है, उसी तरह शासकों को भी अपनी सत्ता कायम रखने के लिए विरोध को दबाना जरूरी है। तीसरे शेर में, शायर कहता है कि जब तक हम अपने बगीचे में जिएँ, गुलमोहर के नीचे जिएँ और जब मृत्यु हो तो दूसरों की गलियों में गुलमोहर के लिए मरें। दूसरे शब्दों में, मनुष्य जब तक जिएँ, वह मानवीय मूल्यों को मानते हुए शांति से जिएँ। दूसरों के लिए भी इन्हीं मूल्यों की रक्षा करते हुए बाहर की गलियों में मरें।
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