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मनोहर प्रेम




प्रेम,काम, रति, प्रणय विराजे
हिय खग ऐसा सोचे न बिचारे
बस मन भाए कुसुम बदरिया
नाना प्रकार कर डारे बतिया

उतर पड़ी रश्मी व्यभिचारी
प्रणय करे भू से अति भारी
देख हरी मन बड़ा भरमाए
 धरा गगन कैसे मिल पाए

अम्बर ने रच रखा स्वयंवर
धरा मान बैठी है जिसे वर
सारी प्रकृति निहार रही है
और नभ को फटकार रही है

कोई नहीं स्वीकार करे गा
यह समाज धिक्कार करे गा
अम्बर हुआ बड़ा धनवानी
धरती कछु माया नहीं जानी

हाय प्रीत न देखी असि न्यारी
मिलन प्यास दोनो में भारी
गगन उतरना चाहे धरा पे
भू मन उडे उच्च समा में

अति प्यारा दृश्य मन सोहत
प्रेम पिपासा त्याग बड़ मोहक
बरस पड़ा जल धार बना नभ
धरा चली जल कर आर्द्र बन

             स्वरचित
    नेहा शुक्ला
   (उन्नाव)
    
 

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