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कवयित्री निर्मला पुतुल_आओ, मिलकर बचाएँ की व्याख्या Aao milakar bachaye vyakhya


कविता आओ, मिलकर बचाएँ



1.
अपनी बस्तियों की
नगी होने से
शहर की आबो-हवा से बचाएँ उसे
अपने चहरे पर
सथिल परगान की माटी का रंग
बचाएँ डूबने से
पूरी की पूरी बस्ती को
हड़िया में
भाषा में झारखडीपन

सन्दर्भ:-  प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है।

प्रसंग-कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।

व्याख्या-कवयित्री लोगों को आहवान करती है कि हम सब मिलकर अपनी बस्तियों को शहरी जिंदगी के प्रभाव से अमर्यादित होने से बचाएँ। शहरी सभ्यता ने हमारी बस्तियों का पर्यावरणीय व मानवीय शोषण किया है। हमें अपनी बस्ती को शोषण से बचाना है नहीं तो पूरी बस्ती हड्डयों के ढेर में दब जाएगी। कवयित्री कहती है कि हमें अपनी संस्कृति को बचाना है। हमारे चेहरे पर संथाल परगने की मिट्टी का रंग झलकना चाहिए। भाषा में बनावटीपन न होकर झारखंड का प्रभाव होना चाहिए।


2.
ठडी होती दिनचय में
जीवन की गर्माहट
मन का हरापन

भोलापन दिल का
अक्खड़पन, जुझारूपन भी

सन्दर्भ:-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है।
प्रसंग:- कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।
व्याख्या-कवयित्री कहती है कि शहरी संस्कृति से इस क्षेत्र के लोगों की दिनचर्या धीमी पड़ती जा रही है। उनके जीवन का उत्साह समाप्त हो रहा है। उनके मन में जो खुशियाँ थीं, वे समाप्त हो रही हैं। कवयित्री चाहती है कि उन्हें प्रयास करना चाहिए ताकि लोगों के मन उत्साह, दिल का भोलापन, अक्खड़पन व संघर्ष करने की क्षमता वापिस लौट आए।


3
कवयित्री लोक जीवन की सहजता को बनाए रखना
प्रतीकात्मकता है। चाहती है।
भाषा आडंबरहीन है।
छोटे-छोटे वाक्य प्राकृतिक बिंब को दर्शाते हैं।
छदमुक्त एवं अतुकांत कविता है।
मिश्रित शब्दावली में सहज अभिव्यक्ति है।
अर्थग्रहण संबंधी प्रश्न

आदिवासी जीवन के विषय में बताइए।
आदिवासियों की दिनचर्या का अंग कौन-सी चीजें हैं?
कवयित्री किस-किस चीज को बचाने का आहवान करती है?
‘भीतर की आग’ से क्या तात्पर्य है?
सन्दर्भ :- संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है।
प्रसंग: –

व्याख्या:- आदिवासी जीवन में तीर, धनुष, कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता है। आदिवासी जंगल, नदी, पर्वत जैसे प्राकृतिक चीजों से सीधे तौर पर जुड़े हैं। उनके गीत विशिष्टता लिए हुए हैं।
आदिवासियों की दिनचर्या का अंग धनुष, तीर, व कुल्हाड़ियाँ होती हैं।
कवयित्री जंगलों की ताजा हवा, नदियों की पवित्रता, पहाड़ों के मौन, मिट्टी की खुशबू, स्थानीय गीतों व फसलों की लहलहाहट को बचाना चाहती है।
इसका तात्पर्य है-आतरिक जोश व संघर्ष करने की क्षमता।

4.
नाचने के लिए खुला आँगन
गाने के लिए गीत
हँसने के लिए थोड़ी-सी खिलखिलाहट
रोने के लिए मुट्ठी भर एकात
बच्चों के लिए मैदान
पशुओं के लिए हरी-हरी घास
बूढ़ों के लिए पहाड़ों की शांति
प्रसंग-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है। कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।
व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आबादी व विकास के कारण घर छोटे होते जा रहे हैं। यदि नाचने के लिए खुला आँगन चाहिए तो आबादी पर नियंत्रण करना होगा। फिल्मी प्रभाव से मुक्त होने के लिए अपने गीत होने चाहिए। व्यर्थ के तनाव को दूर करने के लिए थोड़ी हँसी बचाकर रखनी चाहिए ताकि खिलखिला कर हँसा जा सके। अपनी पीड़ा को व्यक्त करने के लिए थोड़ा-सा एकांत भी चाहिए। बच्चों को खेलने के लिए मैदान, पशुओं के चरने के लिए हरी-हरी घास तथा बूढ़ों के लिए पहाड़ी प्रदेश का शांत वातावरण चाहिए। इन सबके लिए हमें सामूहिक प्रयास करने होंगे।


5.
और इस अविश्वास-भरे दौर में
थोड़ा-सा विश्वास
थोड़ी-सी उम्मीद
थोडे-से सपने

आओ, मिलकर बचाएँ
कि इस दौर में भी बचाने को
बहुत कुछ बचा हैं
अब भी हमारे पास!

सन्दर्भ:-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘आओ, मिलकर बचाएँ’ से उद्धृत है। यह कविता संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल द्वारा रचित है। यह कविता संथाली भाषा से अनूदित है।
प्रसंग: - कवयित्री अपने परिवेश को नगरीय अपसंस्कृतिक से बचाने का आहवान करती है।
व्याख्या-कवयित्री कहती है कि आज चारों तरफ अविश्वास का माहौल है। कोई किसी पर विश्वास नहीं करता। अत: ऐसे माहौल में हमें थोड़ा-सा विश्वास बचाए रखना चाहिए। हमें अच्छे कार्य होने के लिए थोड़ी-सी उम्मीदें भी बचानी चाहिए। हमें थोड़े-से सपने भी बचाने चाहिए ताकि हम अपनी कल्पना के अनुसार कार्य कर सकें। अंत में कवयित्री कहती है कि हम सबको मिलकर इन सभी चीजों को बचाने का प्रयास करना चाहिए, क्योंकि आज आपाधापी के इस दौर में अभी भी हमारे पास बहुत कुछ बचाने के लिए बचा है। हमारी सभ्यता व संस्कृति की अनेक चीजें अभी शेष हैं।


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