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साहित्य को बचाये sahitya ko bachaye

साहित्य को बचाये

विधा : कविता

लोक लाज के कारण,
जमाने के अनुसार जी रहा हूँ।
और अपने मन को मारे जा रहा हूँ।
और अपनी इंसानियत का,
फर्ज निभाये जा रहा हूँ।
और जमाने की हाँ में हाँ,
मिलाए जा रहा हूँ।
क्योंकि जमाने के
अनुसार जो चलना है।।

कहते है सहित्य,
समाज का दर्पण होता है।
पर इस युग में ये बात,
धूमिल होती जा रही है।
तभी तो साहित्य की,
ये हालत होती जा रही है।
जो अब हम से,
देखी नही जा रही है।
क्योंकि साहित्यकार ही,
साहित्य को बेचे जा रहा है।।

कब तक
ये सब चलता रहेगा।
और साहित्य का,
आनादर सहते रहेंगे।
कोई तो इसके लिए,
कदम आगे बढ़ाएगा।
और अपने साहित्य को,
 ऐसे लोगो से बचाएगा।
और साहित्य को पुनः
समाज का दर्पण बनाएंगे।
तभी वो सच्चा साहित्यकार कहलायेगा।।

जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
28/12/2019

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