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टूटने से जब खुद को बचाने लगी tutne se jab khud ko bachane lagi

टूटने से जब खुद को बचाने लगी


टूटने से जब खुद को बचाने लगी, 
हजार मुश्किलें राहों में आने लगी... 

कदम जब उठ पड़े खुद को अडिग बनाने को, 
ये मुश्किलें भी अपना सिर झुकाने लगी... 

आत्मबल जब टूटने लगा, 
साहस की वज़ह याद आने लगी... 

आशान लगने लगा ये सफ़र मेरा, 
जब खुद पर विजय मैं पाने लगी... 

क्रोध, नाराज़गी ने पैदा कर दी थी दरारें मुझमें, 
जो शुरु करी नज़रंदाज़  करना,  दीवारें सही- सलामत नज़र आने लगी... 

उम्मीदों को तोड़ कर सब से, 
खुद से हीं आश मैं रखने लगी... 

कोशिश में जुट गई खुद को पाने की, 
जब अहमियत मेरी, मुझे समझ आने लगी... 

खा जाती हूँ कभी -कभी मात अपने दिल से, 
पर धीरे धीरे एहसासो पर काबू मै पाने लगी... 

कमजोरियों को ढूँढ कर अपनी, 
उनमे आग मैं लगाने लगी... 

धधक उठी आग जब सीने मे, 
जलाने को बहुत - सी बुराईयां नज़र आने लगी... 

टूटने से खुद को जब बचाने लगी, 
हजार मुश्किलें राहों में आने लगी।।।

स्वाति सिन्हा swati sinha 

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