क्या लो अब लफ्जों का सहारा,
अब तो ये भी खामोश हो गए।
जहा देखे थे रेगिस्तान के सपने,
वहा सब कटे बो गए।
आज का दिन भी,
कल की सौगात दे कर ढल गया ,
आज फिर मुसाफिर,
बीच राह ही सो गया।
दिन ढलते ही, अंधेरा छा गया,
तभी मुसाफिर को बिता कल याद आ गया।
भर गईं उसकी आंखें,
और वक़्त थम सा गया ,
वो सोच बैठा, की ये में कहा आ गया।
निकाला था, नई दुनिया की खोज में,
और , खुद को ही खो कर आ गया।
ये मतलबी दुनिया के बीच में कहा आ गया।
अंकित पालीवाल
उदयपुर (राज०)
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