जिंदगी
जीवन उधार रहाहवा पे सवार रहा।
पतझड़ बहार रहा
जिंदगी से हार रहा।।
जीवन के शेष का
शुक्रिया परमेश का।
समय बीतता गया
मध्य रीझता गया।।
सुख-दुख सता रहा
काल का न पता रहा।
हत् गया तुषार है
पड़ रही फुहार है।।
आती - जाती रात रही
दिवस की सौगात रही।
बचपन चला गया
यवानी से छला गया।।
बुढ़ापे की मार है
जग तो असार है।
कौन पूछता हमें
पथ न सूझता हमें।।
काल गाल हैं बड़े
रामलाल हैं पडे़।
बाँस की वो खाट है
श्वेत - श्वेत पाट है।।
सबसे बड़ा रोग था
स्वजनों से वियोग था।
महा प्रयाण पर चले
अशेष से कभी न मिले।।
शरीर का अंत था
सूना सब दिगंत था।
यही तो संसार है
छानता गुबार है।।
स्वरचितं
।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर( उ0प्र0)
No comments:
Post a Comment