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सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

पूरा नाम सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
अन्य नाम निराला
जन्म 21 फ़रवरी, 1896
जन्म भूमि मेदनीपुर ज़िला, बंगाल (पश्चिम बंगाल)
मृत्यु 15 अक्टूबर, सन् 1961
मृत्यु स्थान प्रयाग, भारत
अभिभावक पं. रामसहाय
पति/पत्नी मनोहरा देवी
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र साहित्यकार

मुख्य रचनाएँ परिमल, गीतिका, तुलसीदास (खण्डकाव्य) आदि
विषय कविता, खंडकाव्य, निबंध, समीक्षा
भाषा हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा
प्रसिद्धि कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार
नागरिकता भारतीय

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की रचनाएँ

मार दी तुझे पिचकारी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
शरण में जन, जननि -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
टूटें सकल बन्ध -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
ध्वनि -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
अट नहीं रही है -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
गीत गाने दो मुझे -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
प्रियतम -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कुत्ता भौंकने लगा -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
गर्म पकौड़ी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
दीन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
तुम और मैं -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पथ आंगन पर रखकर आई -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
खेलूँगी कभी न होली -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मातृ वंदना -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
आज प्रथम गाई पिक पंचम -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
उत्साह -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
चुम्बन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मौन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
प्रपात के प्रति -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
प्रिय यामिनी जागी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
वन बेला -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
भिक्षुक -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
तोड़ती पत्थर -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
प्राप्ति -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मुक्ति -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
वे किसान की नयी बहू की आँखें -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
वर दे वीणावादिनी वर दे ! -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मरा हूँ हज़ार मरण -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
भारती वन्दना -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
रँग गई पग-पग धन्य धरा -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
भर देते हो -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
दलित जन पर करो करुणा -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
उक्ति -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि... -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
ख़ून की होली जो खेली -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
आज प्रथम गाई पिक -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
स्नेह-निर्झर बह गया है -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
पत्रोत्कंठित जीवन का विष -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
केशर की कलि की पिचकारी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
भेद कुल खुल जाए -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
राजे ने अपनी रखवाली की -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
गहन है यह अंधकार -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
मद भरे ये नलिन -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
खुला आसमान -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
संध्या सुन्दरी -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
तुम हमारे हो -सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जन्म- माघ शुक्ल 11 सम्वत् 1953 अथवा 21 फ़रवरी, 1896 ई., मेदनीपुर बंगाल; मृत्यु- 15 अक्टूबर, 1961, प्रयाग) हिन्दी के छायावादी कवियों में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। निराला जी एक कवि, उपन्यासकार, निबन्धकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाये। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रान्तिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहाँ अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तनों के स्रष्टा हुए, वहाँ दूसरी ओर परम्पराभ्यासी हिन्दी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक ग़लत भी समझे गये। उनके विविध प्रयोगों- छन्द, भाषा, शैली, भावसम्बन्धी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए घिसी-पिटी परम्पराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत का न होना स्वाभाविक था। लेकिन प्रतिभा का प्रकाश उपेक्षा और अज्ञान के कुहासे से बहुत देर तक आच्छन्न नहीं रह सकता।

जीवन परिचय
''निराला' का जन्म महिषादल स्टेट मेदनीपुर (बंगाल) में माघ शुक्ल पक्ष की एकादशी, संवत् 1953, को हुआ था। इनका अपना घर उन्नाव ज़िले के गढ़ाकोला गाँव में है। निराला जी का जन्म रविवार को हुआ था इसलिए यह सुर्जकुमार कहलाए। 11 जनवरी, 1921 ई. को पं. महावीर प्रसाद को लिखे अपने पत्र में निराला जी ने अपनी उम्र 22 वर्ष बताई है। रामनरेश त्रिपाठी ने कविता कौमुदी के लिए सन् 1926 ई. के अन्त में जन्म सम्बंधी विवरण माँगा तो निराला जी ने माघ शुक्ल 11 सम्वत 1953 (1896) अपनी जन्म तिथि लिखकर भेजी। यह विवरण निराला जी ने स्वयं लिखकर दिया था। बंगाल में बसने का परिणाम यह हुआ कि बांग्ला एक तरह से इनकी मातृभाषा हो गयी।

परिवार

'निराला' के पिता का नाम पं. रामसहाय था, जो बंगाल के महिषादल राज्य के मेदिनीपुर ज़िले में एक सरकारी नौकरी करते थे। निराला का बचपन बंगाल के इस क्षेत्र में बीता जिसका उनके मन पर बहुत गहरा प्रभाव रहा है। तीन वर्ष की अवस्था में उनकी माँ की मृत्यु हो गयी और उनके पिता ने उनकी देखरेख का भार अपने ऊपर ले लिया।

शिक्षा
निराला की शिक्षा यहीं बंगाली माध्यम से शुरू हुई। हाईस्कूल पास करने के पश्चात् उन्होंने घर पर ही संस्कृत और अंग्रेज़ी साहित्य का अध्ययन किया। हाईस्कूल करने के पश्चात् वे लखनऊ और उसके बाद गढकोला (उन्नाव) आ गये। प्रारम्भ से ही रामचरितमानस उन्हें बहुत प्रिय था। वे हिन्दी, बंगला, अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा में निपुण थे और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द और श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर से विशेष रूप से प्रभावित थे। मैट्रीकुलेशन कक्षा में पहुँचते-पहुँचते इनकी दार्शनिक रुचि का परिचय मिलने लगा निराला स्वच्छन्द प्रकृति के थे और स्कूल में पढ़ने से अधिक उनकी रुचि घूमने, खेलने, तैरने और कुश्ती लड़ने इत्यादि में थी। संगीत में उनकी विशेष रुचि थी। अध्ययन में उनका विशेष मन नहीं लगता था। इस कारण उनके पिता कभी-कभी उनसे कठोर व्यवहार करते थे, जबकि उनके हृदय में अपने एकमात्र पुत्र के लिये विशेष स्नेह था।

विवाह
पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में निराला का विवाह मनोहरा देवी से हो गया। रायबरेली ज़िले में डलमऊ के पं. रामदयाल की पुत्री मनोहरा देवी सुन्दर और शिक्षित थीं, उनको संगीत का अभ्यास भी था। पत्नी के ज़ोर देने पर ही उन्होंने हिन्दी सीखी। इसके बाद अतिशीघ्र ही उन्होंने बंगला के बजाय हिन्दी में कविता लिखना शुरू कर दिया। बचपन के नैराश्य और एकाकी जीवन के पश्चात् उन्होंने कुछ वर्ष अपनी पत्नी के साथ सुख से बिताये, किन्तु यह सुख ज़्यादा दिनों तक नहीं टिका और उनकी पत्नी की मृत्यु उनकी 20 वर्ष की अवस्था में ही हो गयी। बाद में उनकी पुत्री जो कि विधवा थी, की भी मृत्यु हो गयी। वे आर्थिक विषमताओं से भी घिरे रहे। ऐसे समय में उन्होंने विभिन्न प्रकाशकों के साथ प्रूफ रीडर के रूप में काम किया, उन्होंने 'समन्वय' का भी सम्पादन किया।

पारिवारिक विपत्तियाँ
16-17 वर्ष की उम्र से ही इनके जीवन में विपत्तियाँ आरम्भ हो गयीं, पर अनेक प्रकार के दैवी, सामाजिक और साहित्यिक संघर्षों को झेलते हुए भी इन्होंने कभी अपने लक्ष्य को नीचा नहीं किया। इनकी माँ पहले ही गत हो चुकी थीं, पिता का भी असामायिक निधन हो गया। इनफ्लुएँजा के विकराल प्रकोप में घर के अन्य प्राणी भी चल बसे। पत्नी की मृत्यु से तो ये टूट से गये। पर कुटुम्ब के पालन-पोषण का भार स्वयं झेलते हुए वे अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए। इन विपत्तियों से त्राण पाने में इनके दार्शनिक ने अच्छी सहायता पहुँचायी।
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 मैथिलीशरण गुप्त

पूरा नाम मैथिलीशरण गुप्त
जन्म 3 अगस्त, 1886
जन्म भूमि चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 12 दिसंबर, 1964
मृत्यु स्थान चिरगाँव, झाँसी
अभिभावक सेठ रामचरण, काशीबाई
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र नाटककार, लेखक, कवि
मुख्य रचनाएँ पंचवटी, साकेत, जयद्रथ वध, यशोधरा, द्वापर, झंकार, जयभारत।
भाषा ब्रजभाषा
विद्यालय राजकीय विद्यालय
पुरस्कार-उपाधि पद्मभूषण, हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, मंगला प्रसाद पारितोषिक, साहित्य वाचस्पति, डी.लिट्. की उपाधि।
नागरिकता भारतीय
पद राष्ट्रकवि, सांसद
अन्य जानकारी 1952 में गुप्त जी राज्य सभा के सदस्य मनोनीत हुए और 1954 में उन्हें 'पद्मभूषण' अलंकार से सम्मानित किया गया।

मैथिलीशरण गुप्त की रचनाएँ

अर्जुन की प्रतिज्ञा -मैथिलीशरण गुप्त
गुणगान -मैथिलीशरण गुप्त
नहुष का पतन -मैथिलीशरण गुप्त
प्रतिशोध -मैथिलीशरण गुप्त
दोनों ओर प्रेम पलता है -मैथिलीशरण गुप्त
भारत माता का मंदिर यह -मैथिलीशरण गुप्त
आर्य -मैथिलीशरण गुप्त
नर हो, न निराश करो मन को -मैथिलीशरण गुप्त
मातृभूमि -मैथिलीशरण गुप्त
कुशलगीत -मैथिलीशरण गुप्त
शिशिर न फिर गिरि वन में -मैथिलीशरण गुप्त
चारु चंद्र की चंचल किरणें -मैथिलीशरण गुप्त
निरख सखी ये खंजन आए -मैथिलीशरण गुप्त
मनुष्यता -मैथिलीशरण गुप्त
मुझे फूल मत मारो -मैथिलीशरण गुप्त
सखि वे मुझसे कह कर जाते -मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त जन्म- 3 अगस्त, 1886, झाँसी; मृत्यु- 12 दिसंबर, 1964, झाँसी) खड़ी बोली के प्रथम महत्वपूर्ण कवि थे। महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से आपने खड़ी बोली को अपनी रचनाओं का माध्यम बनाया और अपनी कविता के द्वारा खड़ी बोली को एक काव्य-भाषा के रूप में निर्मित करने में अथक प्रयास किया। इस तरह ब्रजभाषा जैसी समृद्ध काव्य भाषा को छोड़कर समय और संदर्भों के अनुकूल होने के कारण नये कवियों ने इसे ही अपनी काव्य-अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। हिन्दी कविता के इतिहास में गुप्त जी का यह सबसे बड़ा योगदान है।

जीवन परिचय
मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 चिरगाँव, झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। संभ्रांत वैश्य परिवार में जन्मे मैथिलीशरण गुप्त के पिता का नाम 'सेठ रामचरण' और माता का नाम 'श्रीमती काशीबाई' था। पिता रामचरण एक निष्ठावान् प्रसिद्ध राम भक्त थे।इनके पिता 'कनकलता' उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे। गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली थी। वे बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे। पिता ने इनके एक छंद को पढ़कर आशीर्वाद दिया कि "तू आगे चलकर हमसे हज़ार गुनी अच्छी कविता करेगा" और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ। मुंशी अजमेरी के साहचर्य ने उनके काव्य-संस्कारों को विकसित किया। उनके व्यक्तित्व में प्राचीन संस्कारों तथा आधुनिक विचारधारा दोनों का समन्वय था। मैथिलीशरण गुप्त जी को साहित्य जगत् में 'दद्दा' नाम से सम्बोधित किया जाता था।

शिक्षा
मैथिलीशरण गुप्त की प्रारम्भिक शिक्षा चिरगाँव, झाँसी के राजकीय विद्यालय में हुई। प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए भेजे गए, पर वहाँ इनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात् ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया। लेकिन पढ़ने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था। फिर भी इन्होंने घर पर ही संस्कृत, हिन्दी तथा बांग्ला साहित्य का व्यापक अध्ययन किया। इन्हें 'आल्हा' पढ़ने में भी बहुत आनंद आता था।
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 जयशंकर प्रसाद

पूरा नाम महाकवि जयशंकर प्रसाद
जन्म 30 जनवरी, 1889 ई.
जन्म भूमि वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 नवम्बर, सन् 1937 (आयु- 48 वर्ष)
मृत्यु स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
अभिभावक देवीप्रसाद साहु
कर्म भूमि वाराणसी
कर्म-क्षेत्र उपन्यासकार, नाटककार, कवि
मुख्य रचनाएँ चित्राधार, कामायनी, आँसू, लहर, झरना, एक घूँट, विशाख, अजातशत्रु, आकाशदीप, आँधी, ध्रुवस्वामिनी, तितली और कंकाल
विषय कविता, उपन्यास, नाटक और निबन्ध
भाषा हिंदी, ब्रजभाषा, खड़ी बोली
नागरिकता भारतीय
शैली वर्णनात्मक, भावात्मक, आलंकारिक, सूक्तिपरक, प्रतीकात्मक

जयशंकर प्रसाद की रचनाएँ
अरुण यह मधुमय देश हमारा -जयशंकर प्रसाद
आत्‍मकथ्‍य -जयशंकर प्रसाद
आह ! वेदना मिली विदाई -जयशंकर प्रसाद
चित्राधार -जयशंकर प्रसाद
तुम कनक किरन -जयशंकर प्रसाद
दो बूँदें -जयशंकर प्रसाद
प्रयाणगीत -जयशंकर प्रसाद
बीती विभावरी जाग री -जयशंकर प्रसाद
भारत महिमा -जयशंकर प्रसाद
ले चल वहाँ भुलावा देकर -जयशंकर प्रसाद
सब जीवन बीता जाता है -जयशंकर प्रसाद
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से -जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद जन्म: 30 जनवरी, 1889, वाराणसी, उत्तर प्रदेश - मृत्यु: 15 नवम्बर, 1937) हिन्दी नाट्य जगत् और कथा साहित्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।कथा साहित्य के क्षेत्र में भी उनकी देन महत्त्वपूर्ण है। भावना-प्रधान कहानी लिखने वालों में जयशंकर प्रसाद अनुपम थे।

जन्म
जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई. (माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1946 वि.) वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कवि के पितामह शिव रत्न साहु वाराणसी के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण 'सुँघनी साहु' के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहाँ विद्वानों कलाकारों का समादर होता था। जयशंकर प्रसाद के पिता देवीप्रसाद साहु ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया। इस परिवार की गणना वाराणसी के अतिशय समृद्ध घरानों में थी और धन-वैभव का कोई अभाव न था। प्रसाद का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी। वैद्यनाथ धाम के झारखण्ड से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को 'झारखण्डी' कहकर पुकारा जाता था। वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ।
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4. सुमित्रानंदन पंत

पूरा नाम सुमित्रानंदन पंत
अन्य नाम गुसाईं दत्त
जन्म 20 मई 1900
जन्म भूमि कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत
मृत्यु 28 दिसंबर, 1977
मृत्यु स्थान इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत
कर्म भूमि इलाहाबाद
कर्म-क्षेत्र अध्यापक, लेखक, कवि
मुख्य रचनाएँ वीणा, पल्लव, चिदंबरा, युगवाणी, लोकायतन, युगपथ, स्वर्णकिरण, कला और बूढ़ा चाँद आदि
विषय गीत, कविताएँ
भाषा हिन्दी
विद्यालय जयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज
पुरस्कार-उपाधि ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार , 'लोकायतन' पर सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
नागरिकता भारतीय
आंदोलन रहस्यवाद व प्रगतिवाद

सुमित्रानंदन पंत की रचनाएँ

अनुभूति -सुमित्रानंदन पंत
महात्मा जी के प्रति -सुमित्रानंदन पंत
मोह -सुमित्रानंदन पंत
सांध्य वंदना -सुमित्रानंदन पंत
वायु के प्रति -सुमित्रानंदन पंत
श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति -सुमित्रानंदन पंत
आज रहने दो यह गृह-काज -सुमित्रानंदन पंत
चंचल पग दीप-शिखा-से -सुमित्रानंदन पंत
संध्‍या के बाद -सुमित्रानंदन पंत
वे आँखें -सुमित्रानंदन पंत
विजय -सुमित्रानंदन पंत
लहरों का गीत -सुमित्रानंदन पंत
यह धरती कितना देती है -सुमित्रानंदन पंत
मैं सबसे छोटी होऊँ -सुमित्रानंदन पंत
मछुए का गीत -सुमित्रानंदन पंत
चाँदनी -सुमित्रानंदन पंत
जीना अपने ही में -सुमित्रानंदन पंत
बापू के प्रति -सुमित्रानंदन पंत
ग्राम श्री -सुमित्रानंदन पंत
जग के उर्वर आँगन में -सुमित्रानंदन पंत
काले बादल -सुमित्रानंदन पंत
तप रे! -सुमित्रानंदन पंत
आजाद -सुमित्रानंदन पंत
द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र -सुमित्रानंदन पंत
गंगा -सुमित्रानंदन पंत
अमर स्पर्श -सुमित्रानंदन पंत
आओ, हम अपना मन टोवें -सुमित्रानंदन पंत
परिवर्तन -सुमित्रानंदन पंत
जग-जीवन में जो चिर महान -सुमित्रानंदन पंत
पाषाण खंड -सुमित्रानंदन पंत
नौका-विहार -सुमित्रानंदन पंत
भारतमाता -सुमित्रानंदन पंत
आत्मा का चिर-धन -सुमित्रानंदन पंत
धरती का आँगन इठलाता -सुमित्रानंदन पंत
बाल प्रश्न -सुमित्रानंदन पंत
ताज -सुमित्रानंदन पंत
बाँध दिए क्यों प्राण -सुमित्रानंदन पंत
चींटी -सुमित्रानंदन पंत
याद -सुमित्रानंदन पंत
वह बुड्ढा -सुमित्रानंदन पंत
घंटा -सुमित्रानंदन पंत
बापू -सुमित्रानंदन पंत
प्रथम रश्मि -सुमित्रानंदन पंत
दो लड़के -सुमित्रानंदन पंत
पर्वत प्रदेश में पावस -सुमित्रानंदन पंत
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया -सुमित्रानंदन पंत
धेनुएँ -सुमित्रानंदन पंत
पन्द्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस -सुमित्रानंदन पंत
गीत विहग -सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत जन्म: 20 मई 1900; मृत्यु: 28 दिसंबर, 1977) हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक हैं। सुमित्रानंदन पंत नये युग के प्रवर्तक के रूप में आधुनिक हिन्दी साहित्य में उदित हुए। सुमित्रानंदन पंत ऐसे साहित्यकारों में गिने जाते हैं, जिनका प्रकृति चित्रण समकालीन कवियों में सबसे बेहतरीन था। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी सुमित्रानंदन पंत के बारे में साहित्यकार राजेन्द्र यादव कहते हैं कि 'पंत अंग्रेज़ी के रूमानी कवियों जैसी वेशभूषा में रहकर प्रकृति केन्द्रित साहित्य लिखते थे।' जन्म के महज छह घंटे के भीतर उन्होंने अपनी माँ को खो दिया। पंत लोगों से बहुत जल्द प्रभावित हो जाते थे। पंत ने महात्मा गाँधी और कार्ल मार्क्‍स से प्रभावित होकर उन पर रचनाएँ लिख डालीं। हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ कहे जाने वाले इस कवि ने महानायक अमिताभ बच्चन को ‘अमिताभ’ नाम दिया था। पद्मभूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कारों से नवाजे जा चुके पंत की रचनाओं में समाज के यथार्थ के साथ-साथ प्रकृति और मनुष्य की सत्ता के बीच टकराव भी होता था। हरिवंश राय ‘बच्चन’ और श्री अरविंदो के साथ उनकी ज़िंदगी के अच्छे दिन गुजरे। आधी सदी से भी अधिक लंबे उनके रचनाकाल में आधुनिक हिंदी कविता का एक पूरा युग समाया हुआ है

जीवन परिचय
सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई 1900 में कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत में हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही माँ को क्रूर मृत्यु ने छीन लिया। शिशु को उसकी दादी ने पाला पोसा। शिशु का नाम रखा गया गुसाईं दत्त। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के सुकुमार कवि पंत की प्रारंभिक शिक्षा कौसानी गांव के स्कूल में हुई, फिर वह वाराणसी आ गए और 'जयनारायण हाईस्कूल' में शिक्षा पाई, इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद में 'म्योर सेंट्रल कॉलेज' में प्रवेश लिया, पर इंटरमीडिएट की परीक्षा में बैठने से पहले ही 1921 में असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए।

प्रारम्भिक जीवन
कवि के बचपन का नाम 'गुसाईं दत्त' था। स्लेटी छतों वाले पहाड़ी घर, आंगन के सामने आडू, खुबानी के पेड़, पक्षियों का कलरव, सर्पिल पगडण्डियां, बांज, बुरांश व चीड़ के पेड़ों की बयार व नीचे दूर दूर तक मखमली कालीन सी पसरी कत्यूर घाटी व उसके उपर हिमालय के उत्तंग शिखरों और दादी से सुनी कहानियों व शाम के समय सुनायी देने वाली आरती की स्वर लहरियों ने गुसाईं दत्त को बचपन से ही कवि हृदय बना दिया था। क्योंकि जन्म के छ: घण्टे बाद ही इनकी माँ का निधन हो गया था, इसीलिए प्रकृति की यही रमणीयता इनकी माँ बन गयी। प्रकृति के इसी ममतामयी छांव में बालक गुसाईं दत्त धीरे- धीरे यहां के सौन्दर्य को शब्दों के माध्यम से काग़ज़ में उकेरने लगा। पिता 'गंगादत्त' उस समय कौसानी चाय बग़ीचे के मैनेजर थे। उनके भाई संस्कृत व अंग्रेज़ी के अच्छे जानकार थे, जो हिन्दी व कुमाँऊनी में कविताएं भी लिखा करते थे। यदाकदा जब उनके भाई अपनी पत्नी को मधुर कंठ से कविताएं सुनाया करते तो बालक गुसाईं दत्त किवाड़ की ओट में चुपचाप सुनता रहता और उसी तरह के शब्दों की तुकबन्दी कर कविता लिखने का प्रयास करता। बालक गुसाईं दत्त की प्राइमरी तक की शिक्षा कौसानी के 'वर्नाक्यूलर स्कूल' में हुई। इनके कविता पाठ से मुग्ध होकर स्कूल इंसपैक्टर ने इन्हें उपहार में एक पुस्तक दी थी। ग्यारह साल की उम्र में इन्हें पढा़ई के लिये अल्मोडा़ के 'गवर्नमेंट हाईस्कूल' में भेज दिया गया। कौसानी के सौन्दर्य व एकान्तता के अभाव की पूर्ति अब नगरीय सुख वैभव से होने लगी। अल्मोडा़ की ख़ास संस्कृति व वहां के समाज ने गुसाईं दत्त को अन्दर तक प्रभावित कर दिया। सबसे पहले उनका ध्यान अपने नाम पर गया। और उन्होंने लक्ष्मण के चरित्र को आदर्श मानकर अपना नाम गुसाईं दत्त से बदल कर 'सुमित्रानंदन' कर लिया। कुछ समय बाद नेपोलियन के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर अपने लम्बे व घुंघराले बाल रख लिये|
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5. सुभद्रा कुमारी चौहान

पूरा नाम सुभद्रा कुमारी चौहान
जन्म 16 अगस्त, 1904
जन्म भूमि निहालपुर, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 15 फरवरी, 1948
मृत्यु स्थान सड़क दुर्घटना (नागपुर - जबलपुर के मध्य)
अभिभावक पिता- ठाकुर रामनाथ सिंह
पति/पत्नी ठाकुर लक्ष्मण सिंह
संतान सुधा चौहान, अजय चौहान, विजय चौहान, अशोक चौहानत और ममता चौहान
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र लेखक
मुख्य रचनाएँ 'मुकुल', 'झाँसी की रानी', बिखरे मोती आदि।
विषय सामाजिक, देशप्रेम
भाषा हिन्दी
पुरस्कार-उपाधि सेकसरिया पुरस्कार
प्रसिद्धि स्वतंत्रता सेनानी, कवयित्री, कहानीकार
विशेष योगदान राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाते हुए, उस आनन्द और जोश में सुभद्रा जी ने जो कविताएँ लिखीं, वे उस आन्दोलन में स्त्रियों में एक नयी प्रेरणा भर देती हैं।
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी भारतीय तटरक्षक सेना ने 28 अप्रॅल, 2006 को सुभद्रा कुमारी चौहान को सम्मानित करते हुए नवीन नियुक्त तटरक्षक जहाज़ को उन का नाम दिया है|

सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ

कोयल -सुभद्रा कुमारी चौहान
आराधना -सुभद्रा कुमारी चौहान
उल्लास -सुभद्रा कुमारी चौहान
अनोखा दान -सुभद्रा कुमारी चौहान
उपेक्षा -सुभद्रा कुमारी चौहान
कलह-कारण -सुभद्रा कुमारी चौहान
इसका रोना -सुभद्रा कुमारी चौहान
चलते समय -सुभद्रा कुमारी चौहान
चिंता -सुभद्रा कुमारी चौहान
जीवन-फूल -सुभद्रा कुमारी चौहान
खिलौनेवाला -सुभद्रा कुमारी चौहान
तुम -सुभद्रा कुमारी चौहान
झांसी की रानी -सुभद्रा कुमारी चौहान
झाँसी की रानी की समाधि पर -सुभद्रा कुमारी चौहान
ठुकरा दो या प्यार करो -सुभद्रा कुमारी चौहान
झिलमिल तारे -सुभद्रा कुमारी चौहान
परिचय -सुभद्रा कुमारी चौहान
पानी और धूप -सुभद्रा कुमारी चौहान
पूछो -सुभद्रा कुमारी चौहान
नीम -सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रथम दर्शन -सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रभु तुम मेरे मन की जानो -सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रतीक्षा -सुभद्रा कुमारी चौहान
प्रियतम से -सुभद्रा कुमारी चौहान
फूल के प्रति -सुभद्रा कुमारी चौहान
मेरी टेक -सुभद्रा कुमारी चौहान
भ्रम -सुभद्रा कुमारी चौहान
मुरझाया फूल -सुभद्रा कुमारी चौहान
मेरा गीत -सुभद्रा कुमारी चौहान
मेरे पथिक -सुभद्रा कुमारी चौहान
बिदाई -सुभद्रा कुमारी चौहान
विजयी मयूर -सुभद्रा कुमारी चौहान
मेरा जीवन -सुभद्रा कुमारी चौहान
मेरा नया बचपन -सुभद्रा कुमारी चौहान
विदा -सुभद्रा कुमारी चौहान
मधुमय प्याली -सुभद्रा कुमारी चौहान
यह कदम्ब का पेड़ -सुभद्रा कुमारी चौहान
यह कदम्ब का पेड़-2 -सुभद्रा कुमारी चौहान
वीरों का हो कैसा वसन्त -सुभद्रा कुमारी चौहान
वेदना -सुभद्रा कुमारी चौहान
साध -सुभद्रा कुमारी चौहान
स्वदेश के प्रति -सुभद्रा कुमारी चौहान
समर्पण -सुभद्रा कुमारी चौहान
व्याकुल चाह -सुभद्रा कुमारी चौहान
जलियाँवाला बाग में बसंत -सुभद्रा कुमारी चौहान

सुभद्रा कुमारी चौहान जन्म: 16 अगस्त, 1904; मृत्यु: 15 फरवरी, 1948) हिन्दी की सुप्रसिद्ध कवयित्री और लेखिका थीं। उनके दो कविता संग्रह तथा तीन कथा संग्रह प्रकाशित हुए, पर उनकी प्रसिद्धि 'झाँसी की रानी' कविता के कारण है। सुभद्रा जी राष्ट्रीय चेतना की एक सजग कवयित्री रहीं, किन्तु उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में अनेक बार जेल यातनाएँ सहने के पश्चात् अपनी अनुभूतियों को कहानी में भी व्यक्त किया। वातावरण चित्रण-प्रधान शैली की भाषा सरल तथा काव्यात्मक है, इस कारण उनकी रचना की सादगी हृदयग्राही है।

'चमक उठी सन् सत्तावन में
वह तलवार पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह
हमने सुनी कहानी थी
ख़ूब लड़ी मरदानी वह तो
झाँसी वाली रानी थी।

वीर रस से ओत प्रोत इन पंक्तियों की रचयिता सुभद्रा कुमारी चौहान को 'राष्ट्रीय वसंत की प्रथम कोकिला' का विरुद दिया गया था। यह वह कविता है जो जन-जन का कंठहार बनी। कविता में भाषा का ऐसा ऋजु प्रवाह मिलता है कि वह बालकों-किशोरों को सहज ही कंठस्थ हो जाती हैं। कथनी-करनी की समानता सुभद्रा जी के व्यक्तित्व का प्रमुख अंग है। इनकी रचनाएँ सुनकर मरणासन्न व्यक्ति भी ऊर्जा से भर सकता है। ऐसा नहीं कि कविता केवल सामान्य जन के लिए ग्राह्य है, यदि काव्य-रसिक उसमें काव्यत्व खोजना चाहें तो वह भी है -

हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में।

लक्ष्मीबाई की वीरता का राजमहलों की समृद्धि में आना जैसा एक मणिकांचन योग था, कदाचित उसके लिए 'वीरता और वैभव की सगाई' से उपयुक्त प्रयोग दूसरा नहीं हो सकता था। स्वतंत्रता संग्राम के समय के जो अगणित कविताएँ लिखी गईं, उनमें इस कविता और माखनलाल चतुर्वेदी 'एक भारतीय आत्मा' की पुष्प की अभिलाषा का अनुपम स्थान है। सुभद्रा जी का नाम मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन की यशस्वी परम्परा में आदर के साथ लिया जाता है। वह बीसवीं शताब्दी की सर्वाधिक यशस्वी और प्रसिद्ध कवयित्रियों में अग्रणी हैं।

जीवन परिचय
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म नागपंचमी के दिन 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम 'ठाकुर रामनाथ सिंह' था। सुभद्रा कुमारी की काव्य प्रतिभा बचपन से ही सामने आ गई थी। आपका विद्यार्थी जीवन प्रयाग में ही बीता। 'क्रास्थवेट गर्ल्स कॉलेज' में आपने शिक्षा प्राप्त की। 1913 में नौ वर्ष की आयु में सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका 'मर्यादा' में प्रकाशित हुई थी। यह कविता 'सुभद्राकुँवरि' के नाम से छपी। यह कविता ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई थी। सुभद्रा चंचल और कुशाग्र बुद्धि थी। पढ़ाई में प्रथम आने पर उसको इनाम मिलता था। सुभद्रा अत्यंत शीघ्र कविता लिख डालती थी, मानो उनको कोई प्रयास ही न करना पड़ता हो। स्कूल के काम की कविताएँ तो वह साधारणतया घर से आते-जाते तांगे में लिख लेती थी। इसी कविता की रचना करने के कारण से स्कूल में उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी।

बचपन
सुभद्रा और महादेवी वर्मा दोनों बचपन की सहेलियाँ थीं। दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति से सुख पाया। सुभद्रा की पढ़ाई नवीं कक्षा के बाद छूट गई। शिक्षा समाप्त करने के बाद नवलपुर के सुप्रसिद्ध 'ठाकुर लक्ष्मण सिंह' के साथ आपका विवाह हो गया। बाल्यकाल से ही साहित्य में रुचि थी। प्रथम काव्य रचना आपने 15 वर्ष की आयु में ही लिखी थी। सुभद्रा कुमारी का स्वभाव बचपन से ही दबंग, बहादुर व विद्रोही था। वह बचपन से ही अशिक्षा, अंधविश्वास, जाति आदि रूढ़ियों के विरुद्ध लडीं।

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