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चलो मिलकर होली मनाते है

चलो मिलकर होली मनाते  है 

चलो पुरानी  रंजीसे  भूल जाते हैं 
धुन प्यार का गुनगुनाते हैं 
और कोई न बच पाए इस होली में
चलो मिलकर होली मानते हैं ।

जात  धर्म मजहब को एक बनाते है 
हिन्दू-मुस्लिम सिख सब एक हो जाते है 
द्वेष-भावना सारे अपने मिटाते हैं
चलो मिलकर होली मानते हैं।

घृणा , अहंकार, पाप, क्षोभ, ईष्या
लोभ और 'मैं' को जलाते हैं 
आज मिलकर गले, खुशियां  मनाते हैं
चलो मिलकर होली मानते हैं। 

करके पानी की बचत 
सूखे अबीर गुलाल लगाते हैं
जो नहीं खेले अब तक होली 
उनको भी आज सराबोर कर जाते हैं
चलो मिलकर होली मानते हैं।

धरती रंगीन और अम्बर को रंग जाते हैं 
इस होली में पानी को उपहार दे जाते हैं 
भेद- भाव की भावना को दूर भागते हैं 
चलो मिलकर होली मानते हैं। 

संतोष कुमार वर्मा ' कविराज '
कांकिनाडा , पश्चिम बंगाल
ईमेल - skverma0531@gmail.com

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