बिछड़न
इक राह चलते-चलते जाने किधर चले,
हो मजबूर मैं इधर चला तुम उधर चले,
ना रही कोई मंजिल ना राह अपनी..
छुङाकर हाथ जबसे तन्हा सफ़र चले,
लगती नही जिंदगी की कोई रस्म अपनी..
बिछङकर तुमसे अब किस डगर चले,
है ये कैसा दस्तूर जमाने का..
क्यों नहीं कोई साथ मिलकर चले,
रह गई कुछ यादें उदासियों में लिपटी..
खो कर जिंदगी अब चाहे जिधर चले,
नम आंखें सहमी है गुनहगार सी..
क्यों साथ तेरे ,हो हमसफर चले,
बोझ बन रह गई उम्र अब आनंद..
अकेले हैं कभी इस कभी उस शहर चले।।
ब्रह्मानंद गर्ग "आनंद"
भाडली,जैसलमेर(राज)
अतिसुन्दर रचना 💐💐
ReplyDeleteधन्यवाद सा
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