परिहास
मृगनयनी सुंदर शृंगार कियो,
एक अलक मुख पे लटकायो।
दरवाजे से सटि के खड़ी रही,
प्रीतम को उर मा ध्यान लगायो।।
जोहत नयन मग आवन को,
मनभावन आप मोहे विसरायो।
विरह मा बहुतै व्याकुल हौं,
वो परनारि मे आपन चित्त रमायो।।
।। 2।।
तन हार विहार शृंगार कियो,
रचि-रचि आपन अंग सजायो।
अधरन लाली कान मा बाली,
आंखे काली चिबुक रचायो।।
हाथ मे कंगना मांग को रंगना,
सजना सजना बिनु व्यर्थ करायो।
बसंत को अंत कहां हौ कंत,
विरह को अगिन मोहे धूं धूं जलायो।।
।। 3।।
जोबन पीन ज्यों तलफत मीन,
देखि पथिक मोहि उसास भरैं।
कुच कंचन कामिनी कूंक उठै,
पट भीतर कुरकत केलि करैं।।
मानो नाभि भंवर गम्भीर विवर,
देखि के धीरज न धैर्य धरै।
हलकै फलकै ढलकै चहुँदिशि,
मुरझाये मन की मलिनता हरै।।
।। कवि रंग।।
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 29 मई 2021 को लिंक की जाएगी ....
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