अन्तर्मन
बारिश मे दौड़कर वो मेरे पास आयी।भींचकर बांहों में मुझे सीने से दबायी।।
देखते - देखते मधुर चुंबन कपोलों पे जड़ गयी।
मन प्रफुल्लित तन व्यथित धीरे से मुस्करायी।।
दिखता न था वो तन सुघर कोशिशें नाकाम थीं।
था मुख चंद्र पे अलकों का पहरा कुछ बुदबुदाई।।
हृदय मे अब आग सी काम ज्वाला जलने लगी।
कर मृदु स्पर्श पाकर बारम्बार लेती वो जम्हाई।।
शीत मौसम में भी शरीर स्वेद से स्लथ होता रहा।
मन ना पता तन का पता ना दे रहा है कुछ दिखाई।।
बढ़ी व्याकुलता के कारण गर्म सांसें ना थम्ह रहीं।
वो मदहोश मै बेहोश ले रही अजीब सी अंगड़ाई।।
अब जोर तन का कमजोर होता प्रतिक्षण जा रहा।
हो रहा वदन ढीला देह गीला थीं पलकें अलसायी।।
आँखें खुली जब स्वप्न से तो खाट पे अकेले ही पड़ा।
धूप मुख पे पड़ी देह मे पीड़ा बड़ी थी टूटी चारपाई।।
स्वरचित मौलिक
।। कविरंग।।
।। पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)
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