होली के हर्षोल्लास मँहगाई उड़ाये उपहास
-----------------------------
मार्च का महीना और होली कितने प्यारे कितने न्यारे पर फीकी फीकी सी है मँहगाई के मारे।किसी को रोजगार नही किसी को घर नही पर होली तो मनायेंगे सारे।सबके सपने अनमोल है सभी है अपने सहारे।
जहाँ तक होली का सवाल है तो होली हमारी संस्कृति का हिस्सा है।भक्त प्रह्लाद होलिका दहन और हिरण्यकश्यप की कहानियो से जुडा यह पर्व आस्था के साथ साथ प्रकृति प्रेम को भी उसी तरह दर्शाता है।सात रंगो का समा आस्था के दीप में नहाकर सभी लोग आज भी एक साथ पर्व मनाते है जिस तरह से सदियों पहले मनायी जाती थी।
गाँवो की होली कुछ खास होती है।ढोल नगाडे भांग अबीर गुलाल के साथ टोलियों में जोगीरा गाकर सभी खूब नाचते गाते हैं साथ ही सभी लोग क्या बच्चे क्या बूढे एक दूसरे को रंग अबीर लगाकर खुशी का इजहार करते है ।पुआ पकवान सभी एक दूजे के धर खाते हैं।
शहर की होली उतनी खास नही होती क्योंकि यहाँ की होली एक परिवार या एक रूम, फ्लैट में सिमट कर दम तोड़ने लगी है कुछ लोग ही ऐसे है जो घर से निकलकर होली खेलते जिनमें केवल युवा ही ज्यादा होते हैं।
बाजारो में रंगो का घटता स्तर मिलावट का बाजार अब गुलाल और रंग खेलने की ईजाजत नहीं देते फिर भी कुछ न कुछ तकरीबन इस्तेमाल किया ही जाता है।शराब का बढ़ता प्रचलन भी होली को कुछ हद तक अकेला कर दिया है।
होली रंगो और पौराणिक परम्पराओं और आपसी सौहार्द के साथ हमारी एकता और अखण्डता के लिए एक शानदार त्योहार है ।बसंत अपने शबाब पर होता है बसंती हवा के बीच यह रंगो का त्योहार हम सब को कालान्तर से एक साथ जोड़ती रही है।
बीते कुछ वर्षो मे मँहगाई और बेरोजगारी ने भी इस पर्व के उल्लास को फीका कर दिया है ।खाने पीने पहनने रंग गुलाल सभी की बढती कीमत ने पर्व को ही नही बल्कि इस पर्व से जुडे हुए व्यवसायी को भी नही छोडा है।
आज बेरोजगारी की विक्रालता ने लोगो को ऐसा विवश कर दिया है कि बहुत से लोग दो जून की रोटी के लिए ईधर उधर भटकते हैं ऐसे में पर्व कब आया और कब गया पता ही नही चलता।
आशुतोष
पटना बिहार
No comments:
Post a Comment