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हिन्दी ग़ज़ल में दलित दस्तक/Hindi gazal me dakait dastak @-dalit sahitya

 हिन्दी ग़ज़ल में दलित दस्तक (Hindi ghazal me dalit Dastak

  

Dalit दलित

हिंदी में दलित साहित्य की अवधारणा भक्ति काल में रैदास की कविताओं से शुरू हुई,  लेकिन उसे वास्तविक पहचान आधुनिक काल में दलित लेखकों की आत्मकथा से   मिली. हिंदी की पहली दलित कथा मोहनदास नैमिशराय की  अपने-अपने पिंजरे(1995) मानी जाती है. उसके बाद ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन(1997) प्रकाशित होता है. यह दोनों दलित साहित्य के बेहद महत्वपूर्ण आत्मकथा रहे. इसमें दलितों का पूरा जीवन दिखाया गया है कि वह किस तरह की जिंदगी जीने को विवश हैं. इसी क्रम में कौशल्या बैसंती का दोहरा अभिशाप (1999) सूरजपाल चौहान का तिरस्कृत(2002) धर्मवीर का मेरी पत्नी और भेड़िया(2009) तथा तुलसीराम का मुर्दहिया(2010) आदि का नाम भी लिया जा सकता है. स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी दलितों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो लंबा संघर्ष करना पड़ा जूठन इसे गंभीरता से उठाती है. मुर्दहिया पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में शिक्षा के लिए के लिए संघर्ष एक दलित की मार्मिक अभिव्यक्तिि है. दोहरा अभिशाप इस बात को मजबूती से रखती है कि स्त्री अगर दलित भी हो तो उसे दोहरे अभिशाप से गुजारना पड़ता है. एक उसका स्त्री होना और दूसरा उसका दलित होना.


                            आधुनिक हिंदी कविता में दलित दस्तक हीरा डोम की काव्य रचना अछूत की शिकायत से मिलती है. जिसमें कवि भगवान द्वारा भी भेदभाव किए जाने का वर्णन करता है-'हमनी के दुख भगवनाओं न देखे ' कवि  प्रश्न करता है एक ही जिस्म हमारा भी है और ब्राह्मण का भी. फिर हम दलितों को  वो अधिकार क्यों  नहीं है. सितंबर 1914 की सरस्वती पत्रिका में छपी यह पहली और आखिरी दलित कविता है जिसे भोजपुरी भाषा में लिखा गया था.


                              दलित हिंदू समाज व्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर है. उसके पास संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार भी नहीं है. दलित रचनाओं में जहां सामाजिक भेदभाव जनित पीड़ा है, वही दलित कविताओं में शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति के स्वर भी हैं. अन्य कविताओं की तरह दलित कविता मनोरंजन का साधन नहीं है,  बल्कि इसमें अपनी पीड़ा और अपना आक्रोश है. दलित कवि डॉ.एन  सिंह ने जिसे' बे जुबान आदमी की आवाज कहा है'. ओमप्रकाश वाल्मीकि,  कमल भारती, डॉक्टर युवराज सिंह बेचैन मलखान सिंह,  निर्मला पुतुल, जयप्रकाश कर्दम आदि वह दलित कवि है,  जिनकी कविताओं में दलित समाज की वेदना,  व्यथा,  आक्रोश ,आकांक्षा और छटपटाहट साफ दिखाई देती है. उदाहरण के लिए जयप्रकाश कर्दम की कविता मेरे अधिकार कहां है कि कुछ पंक्तियां देखी जा सकती  हैं-


 तुम कहते हममें  यह नहीं

 तुम कहते हम सब भाई हैं

 फिर क्यों ऊंचे तुम मैं नीचा क्यों

 जाति वर्ण की खाई है

 तुम चाहो रामराज आए

 तुम श्रेष्ठ

 शूद्र मैं बना रहा हूं

 तुमको सारे अधिकार रहें 

 मैं वर्जनाओं से लड़ा रहूं.

                         ग़ज़ल   जो एक सामंतवादी विधा थी , हिंदी में आकर सर्वहारा वर्ग से जुड़ गई फारसी अरबी उर्दू की ज़्यादातर ग़ज़लें प्रेम प्रधान थीं. 

  यहां तक कि हिंदी में भी निराला,  त्रिलोचन,  रंग और शमशेर ऐसी ही ग़जलें लिखते रहे, लेकिन दुष्यंत ने गजल का लहजा बदला जो गजल श्रृंगार की थी वह गजल घर परिवार की बन गई. उसमें अपनी तकलीफों का बयान होने लगा जो ग़ज़ल  राज दरबारों में रह कर आई थी मनुष्य की जरूरतों से जुड़ गई उसमें सत्ता और सामंत के प्रति विरोध दिखाई देने लगा.

                       

हिंदी का दलित वर्ग भी इसी आशा असमानता का शिकार रहा, भेदभाव छुआछूत और पाकी  नापाकी के बने बनाए हुए मानदंडों ने उन्हें हमेशा हाशिए पर रखा वह जिस धर्म के थे उस धर्म के ठेकेदारों ने भी उन्हें खारिज किया.


                       हिंदी कविता से हिंदी ग़ज़ल की स्थिति इस अर्थ में भी थोड़ी सी  अलग है कि हिंदी दलित कविता में दलित कवियों ने ही प्रमुखता से अपने जज्बात रखें. इसलिए उसमें आत्म  पीड़ा भी दिखाई पड़ी.  हिंदी गजल में एक दो  को छोड़ दें तो मुश्किल से ही कोई दलित गजल कार मिलेंगे,  जो हैै वह उतने चर्चित नहीं है ऐसे भी हिंदी ग़ज़ल की बीमारी दस बीस  ग़ज़लकरों को लेकर ही चलने की है. उसमें भी गुटबाजी मौजूद हैं. जहां तक मुझे पता है हिंदी गजल में दलित

 और दलित वर्ग की स्थितियों को तलाश करता हुआ यह हिंदी का पहला रिसर्च आर्टिकल है.

                            हिंदी ग़ज़ल में कई ऐसे शेयर हैं जिसमें दलित के साहस, संघर्ष, दुख दर्द भेदभाव और शोषण उत्पीड़न का वर्णन किया गया है. हिंदी गजल का अध्ययन करने पर पता चलता है कि दलित चेतना को लेकर शायरी करने वाले अदम गोंडवी हिंदी के पहले गजलकार हैं वह स्वयं भी एक प्रकार से इसकी  घोषणा करते हुए एक कविता लिखते हैं-


 आइए महसूस करिए जिंदगी के ताप को

 मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको


 जिस गली में भुखमरी की यातना से डूब कर

 मर गई पुलिया बिचारी एक कुएं में डूब कर

                          हिंदी ग़ज़ल में अदम गोंडवी वैसे गजलगो हैं जिन्होंने कभी चापलूसी नहीं की बल्कि तल्ख तेवर अख्तियार किया. वह वास्तव में इस सदी के महान गजलकार और जन कवि हैं. चर्चित कवि ईश मिश्र मानते हैं कि अदम अन्य दलित दबे कुचले वर्गों के साथ कृषक वर्ग के भी बुद्धिजीवी हैं. वहीं  मधु खराटे ने माना है आदम ने सामाजिक विसंगतियों, आर्थिक विषमता,  गरीबी नैतिक पतन, दलित चेतना आदि का चित्रण भी अपनी गजलों  में खूब किया है.

 अदम की दलित विषयक खेलों में भी यह प्रतिरोध दिखाई देता है-


 तुम्हारी   मेज चांदी की तुम्हारा जाम सोने का

 यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है

                         अदम हिंदी के पहले गजलकार हैं जिन्होंने एक -दो शेर नहीं बल्कि दलितों के हालात पर पूरी की पूरी मुसलसल ग़ज़लें  कही है देखें एक -दो गजल के कुछ शेर -


अंत्यज कोरी पासी हैं हम 

 क्यों कर भारतवासी हैं हम


 अपने को क्यों वेद में खोजें

 क्या दर्पण   विश्वासी हैं हम


 छाया   भी छूना    गर्हित है 

ऐसे    सत्यानाशी      हैं हम  


 धर्म        के ठेकेदार      बताएं

 किस ग्रह के आधिवासी हैं हम


 ऐसी ही उनकी दूसरी एक ग़ज़ल है-


 वेद में जिन का हवाला हाशिये पर  भी नहीं

 वे अभागे   आस्था   विश्वास लेकर क्या करें

 लोकरंजन हो जहां   शंबूक वध की आड़ में

 उस व्यवस्था का घृणित इतिहास  लेकर क्या करें

 कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए छण का यथार्थ

 त्रासदी,  कुंठा,  घुटन, संत्रास लेकर क्या करें


                         इस तरह की ग़ज़लें लिखना इतना आसान नहीं है इसके लिए अदम को गांव के ठाकुरों का विरोध सहनाा पड़ा.उन्हें ठाकुर जाति पर कलंक की पदवी दी गई अदम के ऐसे शेर भरे पड़े हैं.

                      हिंदी ग़ज़ल परंपरा में अदम को छोड़कर दलित विषय को लेकर बाजाब्ता शायरी करने वाले कोई नहीं है, लेकिन हिंदी के कई महत्वपूर्ण गजलकार हैं जिन्होंने अपनी शायरी में पूरी मजबूती के साथ दलितों की दशा और दिशा का चित्रण किया है,  जिसमें अनिरुद्ध सिन्हा,  रामकुमार कृषक,  विनय मिश्र, नूर मोहम्मद नूर,  कमलेश भट्ट कमल, रामचरण राग,  और नचिकेता आदि के नाम लिए जा सकते हैं. इनकी गजलें समाज के सबसे निचले और पिछड़े वर्ग तक पहुंची है. जिसने न मात्र दलित साहित्य को बल्कि गजल साहित्य को भी समृद्ध किया है.

                      असल में दलित शब्द को समझे बिना दलित चेतना को नहीं समझा जा सकता. दलित समाज का वह तबका है जो आर्थिक दृष्टि से वंचित,  शोषित, उत्पीड़ित,  दमित और समाज में समझे जाने वाले नीचे कुल का है. अपमान, बेबसी, उपेक्षा का दंश झेलता  हुआ यह बढ़ा हुआ है. इनका आशियाना वह मलिन बस्ती है जहां से शहर भर की गंदगी गुजरती है. दलित को छूने मात्र से कोई नापाक हो जाता है, और ऐसी मानसिकता उसे हाशिए पर ढकेल देती है. हिंदू वर्ण व्यवस्था में चारों जातियों में दलित की गिनती नहीं होती. इसके लिए अछूत, अंत्याजा, पंचम वर्ण आदि शब्द कर लिए गए हैं. इनकी परछाई से ही समाज नष्ट हो जाता है. इनके मरने पर देवता फूलों की बारिश करते हैं. यह ठाकुर के कुएं में पानी नहीं पी सकते हैं. 

दलित के लिए यह सारे हिदायत और बंधन हैं दलित लेखक जयप्रकाश कर्दम मानते हैं प्रत्येक दलित ने अपने जीवन में कभी ना कभी किसी न किसी रूप में अन्याय अपमान और उपेक्षा का दंश झेला है.

                              जातिगत उपेक्षा भेदभाव अपमान हेय समझने की मानसिकता अपने ही बीच के एक आदमी को हिंदी गजल स्वीकार नहीं करती.  शायर मानता है कि भेदभाव कभी ईश्वर नहीं सिखाता. यही प्रश्न रविदास और कबीर भी करते हैं, और यही सवाल हिंदी का ग़ज़लगो भी करता है. जब सब कुछ एक हैं तो उस तो उसे निम्न जाति का क्यों समझा जाए-


 जातों -पातों  का क्या करें कोई

 ऐसी बातों   का क्या   करें कोई


 यहां पर सब बराबर हैं यह दावा करने वाला भी

 उसे ऊपर    उठाता है      मुझे नीचे गिराता  है 

                                      - बल्ली सिंह चीमा


 क्यों महाजन की आंख है हम पर

 हम कोई  सूद की रकम तो नहीं

                 - बालस्वरूप राही


 पूरे ढांचे को बदलने   की जरूरत होगी

 अब ये हालात नहीं यूं ही संभालने वाले

                         - लक्ष्मी शंकर बाजपेई


 यह कहते आए हैं दाई से लेके साईं तक 

 कि कोई जन्म से छोटा बड़ा नहीं होता

                     - विजय कुमार स्वर्णकार

        

                               ऐसा नहीं है कि हिंदी गजल में सिर्फ दलित की पीड़ा ही है बल्कि कई शेर ऐसे भी हैं इसमें दलित वर्ग के बुद्धि, ताकत, संघर्ष का माद्दा और  राजनीतिक तथा सामाजिक चेतना भी दिखाई गई है. कुछ शेर इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं-


 देश का है हाथ वह भी यह समझ

 अब दलित भी है नहीं कम देख ले

                  - मांगन मिश्र मार्तंड


 अपने हक के लिए    लड़ाई सीधे लड़ना है

 लौट ना आए फिर से वही दलालों वाले दिन

                                  - किशन तिवारी


 यह बात कोख से तय  कैसे हो गई आखिर 

 के मेरे    छूने से   गंगा को पाप     लगता है

                      - विजय कुमार स्वर्णकार


 उंगली जुबान हाथ नज़र इस्तेमाल कर 

 बेखौफ हो के वक्त से सीधे सवाल कर

                           - माधव कौशिक


 सदियों तक गम मन ही मन में पाले हैं

 पर अब   हम आवाज   उठाने वाले हैं 

                           - केपी अनमोल

                        गजल इशारों में बात करती है लेकिन स्थितियां हर वक्त इशारों में बात करने वाली नहीं होती. हिंदी गजल ने शुरू से अपना तल्ख तेवर अख्तियार किया है. हिंदी ग़ज़ल के कई ऐसे शेर हैं जिसमें बिना किसी छुपाव  के सीधे-सीधे सवाल पूछा गया है. कुछ शेर  मुलाहिजा हो-


 हवा मिट्टी या पानी पर सभी का हक बराबर था

 बिगड़ कैसे गया पर्यावरण फिर लोकशाही का

                                           - दिलीप दर्श 


 हिकारत  इस कदर अच्छा नहीं है

 दलित भी आदमी होते हैं साहब

                     - तनवीर साकित


 आपके ढंग में चौधराहट हैं

 इस तरह मशवरे नहीं होते

                 - महेश कटारे 


 आज भी तो है वही सामंतशाही मध्ययुग

 ले  गए औरत उठाकर रोकता कोई नहीं

                                   - राम मेश्राम


 देख भगवे    लिबास का जादू

 सब समझते हैं पारसा तुमको

                    - हस्तीमल हस्ती


 हमारी  मुश्किलें  मानो  हमारे  गम  को  तुम  समझो

कभी तो इस तरह भी हो मुकम्मल हमको तुम समझो

                                          - कमलेश भट्ट कमल


                               कहना न होगा कि हिंदी ग़ज़ल में दलित के कई रूप सामने आते हैं. दलित समाज में सबसे निचले पायदान पर हैं, लेकिन यह भी सच है कि अब दलितों की स्थितियां पहले से बेहतर हुई हैं. वोट की राजनीति ही सही उनके वजूद को समझा जाने लगा है गजल में कई ऐसे शेर मिलेंगे जिसमें यह बदला हुआ मंज़र दिखाई देता है-


 मिले हैं टिकट जबसे भूमाफियों  को

 दलितों    की बस्ती     बसाने लगे हैं

                                 -लवलेश दत्त


 टिकी है आंख गुब्बारे पे उसकी

 करेगा कुछ नया मतलू का बेटा

                     - अनिरुद्ध सिन्हा


 गर  नहीं सब का     तो मैं यह पूछता हूं आपसे

 यह जमीं  किसके लिए है आसमां किसके लिए

                                          - माधव कौशिक

दलित की बस्तियां होकर कभी गुजरो

मिलेगी हर जगह खुशबू मोहब्बत की

                                    - विकास


                      भाषिक कला की दृष्टि से दलित रचनाएं इंकार की भाषा है. इसकी भाषा,  साहित्य के मानदंडों से थोड़ी अलग है. इसमें गाली गलौज है,  इसके प्रतीक भी जो इस्तेमाल किए गए हैं वह भी वीभत्स और घिनौने हैं. इसका अपना कारण भी है कि दलित साहित्य में उसी परिवेश की बोलियों को जगह दी गई है, जिसमें दलित वर्ग जीते आए हैं. अक्सर दलित पर चर्चा करते हुए यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि गैर दलित साहित्यकारों की रचना दलित विमर्श में शामिल की जाए या नहीं. एक बड़े वर्ग का तर्क है कि गैर दलित ने दलितों पर सिर्फ लिखा है भोगा नहीं  है. उनकी बात मान लेने से ठाकुर का कुआं लिखने वाले प्रेमचंद से चतुरी चमार लिखने वाले निराला तक दलित साहित्य से खारिज कर दिए जाएंगे. तुलसीराम का अलग ही मत है वह पूरी तरह से ब्राह्मणवाद के खिलाफ खड़े हैं. दलित के बड़े चिंतक तुलसीराम की दृष्टि में दलित को बंधनों से अलग अपना रास्ता बनाना होगा. वह समयांतर पत्रिका के एक आलेख में लिखते हैं कि ब्रह्मणवादी जो व्यवस्था है उसको मानने वाले तो गैर ब्राह्मण जाति हैं. जिसमें दलित भी शामिल है. दलित भी पूजा उसी देवता का करता है जिस देवता को ब्राह्मण पूजता है,  वही कर्मकांड जो ब्राह्मण करता है वही दलित भी करता है. तो आप उसके खत्म होने के बात  कैसे कर सकते हैं. आज के दौर में दलितों कोअधार्मिक हो जाना चाहिए.

                          यह ठीक है कि दलित आज भी संघर्ष कर रहे हैं अपने स्वाभिमान की लड़ाइयां लड़ रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि आज दलित जातियां इसमें ब्राह्मण भी शामिल है,  का एक बड़ा वर्ग दलितों के साथ खड़ा है उनकी रचनाएं दलित विमर्श पर आ रही है. इसलिए दलित साहित्य से उनकी रचनाओं को खारिज करना या सीधे सीधे आरोप मढ  देना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. आज दलित के लिए पद दलित शब्द का भी इस्तेमाल हो रहा है यह अलग प्रश्न है कि पददलित सिर्फ दलित वर्ग हैं या अन्य ऊँचे समझे माने जाने वाले वर्ग भी. यही प्रश्न रैदास  भी पूछते हैं 'जन्मजात मत पूछिए का जात अरु पात ' और गज़लकार  दीप नारायण भी -


 कौन सी बात पूछते हो तुम

 क्यों मेरी जात पूछते हो तुम

                    - दीप नारायण

                           शायर यह मानकर चलता है कि दलित को लंबे दिनों तक उनके अधिकार से वंचित रखा गया स्लम  बस्तियों में रहने वाला यह बड़ा वर्ग आज भी शुद्ध हवा,  शुद्ध पानी, और शुद्ध भोजन की तलाश में है. उसकी जरूरतों में शिक्षा भी है और सम्मान भी वह सिर्फ वोट के लिए नहीं है अपनी जिंदगी सुधारने के लिए भी बने हैं. रामचरण राग ने  इस पर एक मुकम्मल ग़ज़ल लिखी है-


 दलित की चेतना को वोट का अधिकार है केवल

 किताबों के   अलावा तो दलित लाचार है केवल

 युगो से   गंदगी का बोझ   हम सिर पर उठाते हैं

 हमारी इस जिंदगी का बस यही आधार है केवल

 हमारे नाम पर होती    सियासत की हकीकत है

 यहां   बस भाषणों में ही दलित उद्धार है केवल

 हमें शिक्षा   सही लेकर   नए प्रतिमान गढ़ने  हैं

 बिना   शिक्षा हमारी   जिंदगी   बेकार है केवल

 भला अंबेडकर का हो दिखाया पथ नया हमको

 नहीं तो सांस जीवन पर रही बस भार है केवल

                                          - राम चरण राग 


               ऐसे ही  कुछ अन्य शेर भी देखने  योग्य हैं -

 कुचला गया है कौन यहां और कितनी बार

 गिनती में एक    पूरी सदी     ही मिसाल है

                                         -विनय मिश्र 

 वे ही पूजित वो ही  चर्चित ऐसा   वैसा मैं ही क्यों हूं 

 पांचों उंगली उनकी घी में भूखा प्यासा मैं ही क्यों हूं

                                         - विनय मिश्र


 उनकी   आंखों के   सपने को    सजा कर देखो

 हां यह दलित बस्ती है जरा नजर उठा कर देखो

                                     - ए. आर. आज़ाद 


 धंधा    ही राजनीति   है  झंडा     उठाइए

 जय भीम कह के ताज पे  कब्जा जमाइये 

                                     - राम मेश्राम

 मेरा तो घर भी जूठा कमरा जूठा आंगन जूठा

 मेरे घर  आई तो बोलो    कहां रहेगी गंगा जी

                              - ज्ञानप्रकाश विवेक

 गगनचुंबी   इमारत   उठ  रही है

 पचीसों  झुग्गियों की जान लेकर

                        - जहीर कुरैशी

 पानी तक वो बांट ले गए

 जिनसे थे संबंध लहू के

                    - उर्मिलेश

 जब हुई नीलाम     कोठे पर   किसी की आरजू

 फिर अहिल्या  का सरापा  जिस्म पत्थर हो गया

                                           - अदम गोंडवी

 हुई  बरसात तो  झुग्गी     ने सोचा

 अचानक अपने छप्पर की दिशा में

                            - जहीर कुरैशी

                           आलोचक ज्ञानप्रकाश विवेक मानते हैं गजल में कविता से कहीं अधिक चुनौतियां हैं. असल में गजल समझ आने वाली विधा है. यह ज्यादा प्रतीकों मिथकों और व्यंजनों में विश्वास नहीं करती. इसलिए पाठक जान जाता है कि शायर  क्या कहने वाला है. ग़ज़ल ने अपनी करवटें ली है. कभी समय से कटकर नहीं रही. गजल ने कभी बादशाहों  की बात की जमींदारों की बात की स्त्री पुरुष और बच्चों की बात की,  पर आज यही गजल दलितों वंचितों गरीबों और हाशिए के लोगों की बात कर रही है. यह वह प्रेमिका नहीं है जिसे प्रेम में  ही दिल लगता  है, या आंख,  नाक, और कान खोल कर चलने वाली प्रेयसी है. गजल में जहां बादशाहों  का गुणगान होता है, आज वहां दलितों और वंचितों की बातें भी है. यह वह विधा है जो हालात के मुताबिक कभी रुख  नहीं बदलती वो  उसके साथ शामिल हो जाती है. कुछ शेर उल्लेखनीय हैं -


 खुदा के वास्ते इस पर ना डालिए कीचड़ 

 बची   हुई है यही   शर्ट       आखरी मेरी

                             - ज्ञानप्रकाश विवेक

 झूठा बता के बाज  को बीवी को फाहिशा 

 हमने दलित विमर्श को अभिनव उछाल दी

                                       - राम मेश्राम

डेढ़ अरब की आबादी में किसको तेरी फ़िक्र पड़ी 

 जीता है तो जी ले यूं ही वरना तू भी जा कर मर

                                   - कमलेश भट्ट कमल

 कहां से और   आएगी     अकीदत की  वह सच्चाई

 जो झूठे बेर वाली    सिरफरी शबरी     से आती है

                                        - उर्मिलेश

 बूढा बरगद जानती है किस तरह से खो गई

 रमसुधी  की झोपड़ी सरपंच की चौपाल में

                         आज का  समाज  किसी की बात को यूं ही स्वीकार नहीं कर लेता,  बल्कि उसमें विरोध करने और अपने हक के लिए लड़ने की ताकत है-

 याचकों    के वेश में

 हम जिए इस देश में

 तुगलकी फरमान था 

 आपके    आदेश में

                       - अश्वघोष

 ठंडा   मत हो     जाने दो

 अपना रक्त तपाते  रहना

                    - चंद्रसेन विराट

                        अछूतानंद जिन्होंने आदि हिंदू धर्म नाम से एक संस्था चलाई और इस नतीजे पर पहुंचे कि दलित ही वास्तव में प्राचीन हिंदू हैं. उन्होंने एक कविता लिखी थी दलित कहां तक पड़े  रहेंगे जमीं के नीचे गरे रहेंगे- हिंदी गजल इस प्रश्न का उत्तर तलाशती है. अनिरुद्ध सिन्हा का एक प्रसिद्ध शेर है -


 बचपन में हर काम सुहाना सीख लिया

 दुनिया भर का बोझ उठाना सीख लिया

 पास्ता कलम किताब उठाने के बदले

 मैंने जूठा   प्लेट उठाना   सीख लिया

                              - अनिरुद्ध सिन्हा

                        इस संदर्भ में कुछ और शेर का भी अपना मूल्य है-

 नदियों के गंदे पानी को घर में निखार कर

 चूल्हा जला   रही है    वह पत्ते बुहार कर

                                    - डॉ भावना

 दलितों की इसी बस्ती से तो मैं भी गुजरता हूं

 कभी आते हुए मुंह पर नहीं रुमाल रक्खा  है

                        - डॉ.जियाउर रहमान जाफरी 

 मेरी ग़ज़लों में लैला है ना कोई हीर मौलाना

 मेरे अशआर  में है आदमी की पीर मौलाना

                                  - राजेंद्र तिवारी

 इस हिकारत की नजर ने जो मुझे तोड़ दिया

 सोचा हम       जैसों ने यह उम्र गुजारी कैसे

                          - विजय कुमार स्वर्णकार

 या दलित जाने या जाने इक नदी

 शहर भर की गंदगी धोने  का दुख


आपको     हासिल रही   ऊंचाइयां 

आप क्या जानें दलित होने का दुख 

                         -ए . एफ नज़र 

हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत 

तुमने बासी रोटियां  नाहक उठाकर फेक दी 

                               -दुष्यंत कुमार 

 हमारा खून    तुम्हारी शराब    क्या मतलब

 गरीब जिस्म अभी तक कबाब क्या मतलब

                              - नूर मोहम्मद नूर

 अगले कल के लिए जोड़ना भी नहीं

 रोज ही     मांगना रोज खाना भी है

                          - जहीर कुरैशी

 सर जो मुश्किल है तो फिर पैर ही काटे जाएं

 तय हुआ है कि    किसी से कोई ऊंचा न रहे

                               - महेशअश्क 

                     दलित लेखक मनोज सोनकर का मानना है कि दलित कविता का मूल मंत्र है हमें आदमी चाहिए.श्यौराज सिंह को विश्वास है कि वह वक्त जरूर आएगा-

 हम    सुबह के वास्ते आए हैं

 हम सुबह जरूर लेकर जाएंगे

                 दलित चिंतक कंवल भारती एक व्यक्ति की हत्या को पूरी समष्टि  की हत्या स्वीकारते हैं-


 शंबूक तुम्हारी हत्या

 दलित चेतना की हत्या थी

 स्वतंत्रता समानता और न्यायबोध  की हत्या थी


                        हिंदी ग़ज़ल हद उस विभाजन के खिलाफ है जो मनुष्यता के रास्ते में खड़ी है. हिंदी का शायर मानता है कि जब तक आखिरी पायदान पर बैठे व्यक्ति तक न्याय नहीं पहुंचता कुछ भी न्याय संगत नहीं हो सकता. कुछ शेर काबिले गौर हैं -


हम भी स्वाधीनता मनाते हैं

 पर दिया पेट  का जलाते हैं

                  - भवानी शंकर

 दर्द  , बेचैनियां, घुटन,  आंसू

 ये जहां मुझको और क्या देगी

                    - गिरिराज शरण अग्रवाल

 आदमी होगा मर गया गंगू

 फर्ज पूरा तो कर गया गंगू

                    - रामकुमार कृषक

 राहु को     सबने पासवां   यूं ही न कह दिया

 दुनिया में उसका कोई भी सानी न बन सका

                           - आर. पी घायल

 वह दर्द वह बदहाली के मंजर नहीं बदले

 बस्ती में   अंधेरों से भरे    घर नहीं बदले

                          - लक्ष्मी शंकर बाजपेई

 रहना पड़ा जो सांप के जंगल में हाशमी

 हमने भी इस शरीर को चंदन बना दिया

                       - फजलुर रहमान हाशमी

 बुझा देते हैं    जाकर  झोपड़ी में वह चिरागों को

 जमीदारों का यह रूतवा हवाओं से कहां कम है

                              - अनिरुद्ध सिन्हा

 पूछिए उस अभागन से उसका पता

 जिंदगी    को जिसे झुर्रियां खा गई

                        - अनिरुद्ध सिन्हा

 तुम्हारे पांव के  नीचे    कोई ज़मीन नहीं

 कमाल यह के फिर भी तुम्हें यकीन नहीं

                              - दुष्यंत कुमार

                   हिंदी गजल के कई शेर ऐसे भी हैं जिसमें शबरी और शंबूक को प्रतीक बनाकर अपनी बात कही गई है-

 थोड़ा     सच्चा   थोड़ा झूठा होता है

 वर्जित फल का स्वाद अनूठा होता है

 शंबूकों  को प्राण   गंवाने     पड़ते हैं

 एकलव्य   का दान   अंगूठा होता है

                               - राहुल शर्मा

                दलित और वंचित वर्ग पर कई तरह के सामाजिक बंदिश लगाए गए उन्हें मंदिर जाने से रोका गया शादियों में वह घोड़े पर नहीं जा सकते थे, अथवा आसन ऊंचा नहीं कर सकते थे. उनकी स्त्रियां पर्दा नहीं कर सकती थी. उन्हें अच्छे नाम से पुकारा नहीं जाता था. उच्च जातियां उनकी इज्जत आबरू ले ले तो वह अपराध नहीं था. हिंदी गजल ऐसे मसलों को भी उठाती है कुछ शेर देखें-


 उन्हें तो चाहिए ज्यादा मगर थोड़ी नहीं मिलते

 हमेशा ही निवाले हाथ को    जोड़े नहीं मिलते

 वह पैदल ही चला जाता रहा बारात  को लेकर

 अभी भी कुछ दलितों को यहां घोड़े नहीं मिलते

                                 - अंजनी कुमार सुमन


 फर्क इन्सान से इंसां का मिटाने देते

 मंदिरों में दलितों को भी तो जाने देते

                            - अमान ज़खीरवी 

                      इस प्रकार हम कह सकते हैं कि हिंदी ग़ज़ल में दलितों के जीवन और उनकी समस्याओं पर गहराई पूर्वक विचार किया गया है. अपने लेखन शैली और प्रभावी ढंग के कारण हिंदी गजल ने दलित साहित्य की समृद्धि में अपनी प्रभावपूर्ण उपस्थिति दर्ज की है.



ज़ियाउर रहमान जाफ़री
असिस्टेंट प्रोफेसर 
स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग 
मिर्ज़ा ग़ालिब कॉलेज गया, बिहार - 803001
मोबाइल -9934847941



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