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इंतजार कहानी Intjaar kahani

इंतजार

राय साहब की गिनती शहर के प्रतिष्ठित लोगों में हुआ करती ।कारोबार में सालाना टर्न ओवर लाखों का था। विधाता की कृपा से किसी चीज़ की कोई कमी नहीं थी।भरा पूरा परिवार था।धर्मपरायण पत्नी,एक बेटी और दो होनहार बेटे। राय साहब खुद को बड़ा खुशनसीब मानते थे।ऐसा नहीं था कि ये  ऐशो आराम उन्हें विरासत में मिला था। गांव में अचानक भयानक बाढ़ आ जाने के कारण सब कुछ गवांकर किसी प्रकार जान बचाकर वे अपनी मां और बाबूजी के साथ फटेहाल पच्चीस वर्ष पहले इस शहर में आए थे। बाबूजी बमुश्किल गुजारे लायक कमा पाते थे।सरकारी स्कूल में पढ़ाई करते हुए राय साहब ने  शासन से प्राप्त छात्रवृत्ति से कॉमर्स विषय लेकर पढ़ाई की। आगे चलकर  मैनेजमेंट के क्षेत्र में उपाधि प्राप्त की और बैंक से कर्ज लेकर अपना व्यवसाय शुरू किया। किसी की गुलामी करना उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था।नौकरी को भी वे गुलामी ही मानते थे। अपने अथक प्रयास और बेजोड़ मेहनत से उन्होंने वर्तमान मुकाम हासिल किया था।

समय बीतने के साथ उन्होंने एक बड़े परिवार में बेटी का विवाह कर दिया। वे चाहते थे कि उनके दोनों बेटे उनके कारोबार को आगे बढ़ाएं किन्तु दोनों को उनके काम में कोई रुचि नहीं थी।बड़ा बेटा विदेश में बसना चाहता था जबकि छोटे ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में जाने का मन बना लिया था।दोनों बेटों को बुलाकर वे बोले,"अच्छा ख़ासा कारोबार है क्यों नहीं तुम लोग इसी को आगे बढ़ाते?हम लोगों को भी बुढ़ापे में तुम लोगों का सहारा मिला रहेगा आख़िर किस बात की कमी है यहां?" बड़े बेटे ने कहा, "डैड, आप भी तो घर बार छोड़कर  शहर आए थे अपना भाग्य आजमाने।आज जब हम लोग भी अपनी मंजिल खुद तलाशना चाहते हैं तो  आपको क्या दिक्कत है? रही बात बुढ़ापे में सहारे की तो इतने नौकर चाकर हैं, हमारी क्या जरूरत है?"राय साहब कुछ कहते इससे पहले ही उनकी पत्नी उन्हें बीच में टोकते हुए बोलीं,"जाने दीजिए न।इनके जो मन में आए करने दीजिए।कल को ये हमें ही दोष देंगे कि हमारे कारण कुछ नहीं कर पाए।"वे चुपचाप उठकर अपने कमरे में चले गए।दिल पर पत्थर रखकर दोनों को जाने दिया।इतना बड़ा घर खाने को दौड़ता था।कभी - कभी बेटी जब अपने बच्चों के साथ घूमने आती तो जैसे घर में रौनक आ जाती।बच्चों के साथ समय का पता ही नहीं चलता लेकिन उसके बाद फिर एक लम्बी ख़ामोशी।फोन से पता चला कि बेटों ने अपना अपना घर भी बसा लिया।उन्हें शादी में न बुला पाने के लिए माफ़ी मांगने की भी औपचारिकता निभा दी।

राय साहब जब कभी बहुत अधिक हताश होने लगते तो पत्नी उन्हें समझाती,"दिल क्यों छोटा करते हैं जी।आपके कारखाने में काम करने वाले सैकड़ों मजदूर भी तो आपके बच्चों जैसे ही हैं,कितना आदर करते हैं आपका।इन्हीं में अपनी खुशियां क्यों नहीं तलाशते?" राय साहब ये भली भांति जानते थे कि सावित्री(उनकी पत्नी)भी बेटों को देखने के लिए तरसती रहती है लेकिन कभी जाहिर नहीं होने देना चाहती जिससे कि उन्हें दुःख न हो।पत्नी के मशवरे पर अमल करते हुए राय साहब ने अपना ज्यादातर समय काम में बिताना शुरू कर दिया।कहते हैं न, चिंता चिता के समान होती है।बेटों के लौटने की आस मन में लिए उनकी पत्नी एक दिन पूजाघर में ही निष्प्राण होकर गिर पड़ीं।राय साहब निढाल होकर बैठ गए।बेटों को ख़बर दी गई तो बड़े बेटे ने वीज़ा न मिल पाने के कारण आने के लिए असमर्थता ज़ाहिर की ।छोटा बेटा दो दिनों के लिए आया।अंतिम संस्कार के कर्मकांड संपन्न हुए तो उसने जायदाद बेचकर साथ चलने को कहा। राय साहब ने यह कहकर इनकार कर दिया कि वे बोले," सावित्री की यादों को छोड़कर मैं कहीं नहीं जाऊंगा  और रही जायदाद को बेचने की बात तो ये सब मेरे मरने के बाद ही तुम लोगों को मिल पाएगा।"बेटे ने झुंझलाते हुए कहा,ठीक है करिए अपनी मनमानी लेकिन कहे देता हूं कि मेरे पास भी समय नहीं है बार- बार यहां आने का।" दो दिन बाद वह वापस चला गया कभी न लौटने की बात कहकर।राय साहब ने अपने आपको घर तक ही सीमित कर लिया। वे कुछ गिने चुने लोगों से ही मिला करते थे।वसीम साहब उन्हीं में से एक थे जो पेशे से वकील थे।रोज सुबह साथ टहलना होता।उसी दौरान अपने सुख दुःख कह लिया करते थे।एक दिन उन्हें दोपहर में बुला भेजा और बोले कि वसीयत तैयार करनी है।जायदाद के चार हिस्सेदार होंगे।वसीम साहब कलम रोकते हुए बोले,"माफ़ कीजिएगा लेकिन जहां तक मुझे ध्यान पड़ता है,आपकी तो तीन ही औलादें हैं फिर ये चौथा हिस्सा किसके लिए?" वे गहरी सांस भरते हुए बोले,"सावित्री सच कहती थी,कारखाने के कर्मचारी मेरी संतान ही तो हैं जिन्होंने हमेशा मेरा साथ निभाया,भला मैं उन्हें कैसे भूल सकता हूं?चौथा हिस्सा उन्हीं के नाम करना है।आख़िर कंधा भी तो वही लोग देंगे। ख़ुद के बेटों ने तो मुड़कर भी नहीं झांका कि मैं जीवित भी हूं या नहीं।"ये कहते हुए उनकी आंखे छलछला पड़ीं और व आंसुओं को छिपाने का असफल प्रयास करने लगे।

अगले दिन सुबह जब वसीम साहब रोज़ाना की तरह सुबह कर सैर के लिए पहुंचे तो पता चला कि राय साहब अब नहीं रहे।भीतर कमरे में जाकर देखा तो वे पलंग पर निष्प्राण पड़े थे और आंखे शून्य में ताक रही थीं।कमरे का सारा सामान व्यवस्थित पड़ा था।रात के भोजन की थाली भी टेबल पर अनछुई रखी हुई थी।पलंग पर ही बगल में कागज पेन पड़ा था।उठाकर देखा तो लिखा था,"तुम लोगों की बहुत याद आ रही है,काश जाने से पहले एक बार देख पाता।"उन्हें अंतिम विदाई देने वालों का तांता लगा हुआ था बस इनमें वही चेहरे नहीं थे जिनका इंतज़ार उन्हें मरते दम तक था।


प्रेषक:कल्पना सिंह
पता:आदर्श नगर, बरा,रीवा(मध्यप्रदेश)

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