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बेजुबान bejuban janwar

बेजुबान

मैं थी नासमझ बेजुबान 
जो माना इंसानों को महान 
जो समझ ना सकी मैं उनके छल को 
भूख मिटाने के लिए खा लिया फ़ल को 
इसमें मेरा क्या कसूर था 
जो तुमने डाला फ़ल में बारूद था
नन्ही सी जान मेरे अंदर पल रही थी 
जो भीषण गर्मी में मेरे साथ चल रही थी 
अपना दर्द मैं किसी को बता भी ना सकी 
बेजुबान हूं इसलिए चिल्ला भी ना सकी 
मैं चाहती थी अपने अंश को इस दुनिया में लाना 
पर तुम्हारे कारण अपनी सांसों से हारी थी 
हमारे घरों पर तुम्हे महल बनाना था 
हमें तो यह भी मंजूर था 
ए इंसान, तू इतना क्रुर था 
कि तुझे बेजुबान की जान लेना मंजूर था 
पर ये तो बता इसमें मेरा क्या कसूर था ??


अक्षिता जैन *अनेश*
सवाईमाधोपुर, राजस्थान
व्यवसाय:- अध्ययन, अध्यापन
शिक्षा:- स्नातकोत्तर

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