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हिन्दी साहित्य : छंद


छन्द काब्य-रचना का मूल आधार है । छन्द के साँचे में ही ढ़लकर कविता पूर्णता को प्राप्त करती है । छन्दहीन रचना में काव्य के सौन्दर्य तथा सौष्ठव का प्राय: अभाव ही रहता है, अत: कविता को समझने तथा उसका भरपूर आनन्द लेने के लिए छन्द का ज्ञान आवश्यक हो जाता है ।
छोटी-बड़ी ध्वनियों का तोल-माप में बराबर होना छन्दबद्ध रचना के लिए एक आवश्यक शर्त है । ध्वनियों को बराबर करने के विशेष नियम हैं । इन नियमों में बँधी ध्वनियाँ ही लय उत्पन्न कर सकती हैं और इन्हीं नियमों में आबद्ध रचना को छन्द कहते हैं । अत: अक्षर, अक्षरों की संख्या एवं क्रम, मात्रा, मात्रा-गणना तथा यति-गति आदि से सम्बन्धित विशिष्ट नियमों से नियोजित पद्य-रचना छन्द कहलाती है ।

छंद के अंग

1. चरण या पाद
2. मात्रा और वर्ण
3. लघु और गुरु
4. संख्या, क्रम तथा गण
5. यति
6. गति
7. तुक

1. चरण या पाद: चरण या पाद छंद की उस इकाई का नाम है जिसमे अनेक छोटी-बड़ी ध्वनियों का सन्तुलन किया जाता है । यह एक प्रकार से छन्द का ‘सन्तुलित खण्ड’ है, जिसके आधार पर शेष खण्डों का निर्माण किया जाता है । साधारणतया छन्द के चार चरण या पाद होते हैं । प्रत्येक चरण या पाद में वर्णों या मात्राओं की संख्या क्रमानुसार नियोजित रहती है । एक छन्द में चार से कम या अधिक चरण भी हो सकते हैं, पर ज्यादातर चार ही होते हैं । छन्द की स्थिति के आधारभूत अंश को ही पाद या चरण कहा जाता है।

2. मात्रा और वर्ण: किसी ध्वनि के उच्चारण में जो समय लगता है, उसकी सबसे छोटी इकाई को मात्रा कहते हैं । जैसे ‘क’ के उच्चारण की अपेक्षा ‘का’ के उच्चारण में दुगुना समय लगता है । इस प्रकार समय के आधार पर ‘क’ एक या हृस्व मात्रा है; परन्तु ‘का’ दो या दीर्घ मात्रा है । इस हिसाब से सभी हृस्व स्वरों की एक-एक मात्रा होती है तथा सभी दीर्घ स्वरों की दो-दो मात्राएँ मानी जाती हैं । मात्राओं की गिनती में व्यंजनों को नहीं गिना जाता, केवल स्वरों की ही मात्राएँ गिनी जाती हैं । उदाहरण के लिए ‘राजा’ में चार तथा ‘राज’ में तीन मात्राएँ हैं । वर्ण का अर्थ अक्षर भी है । एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं, फिर चाहे वह स्वर हृस्व हो या दीर्घ । जैसे- राजा’ और ‘राज’ शब्दों में दो-दो वर्ण हैं, जबकि उनमें मात्राओं का अन्तर है । इस प्रकार वर्ण की परिभाषा यही है कि हृस्व-दीर्घ आदि मात्राओं और साथ में जुड़े हुए व्यंजनों के विचार के बिना एक स्वर वाली ध्वनि को वर्ण कहते हैं।
उदाहरण- “अनुजबधू भगिनी सुतनारी” चरण में वर्ण तो 12 हैं, परन्तु मात्राएँ। 16 हैं । छन्द के विद्यार्थियों को वर्ण और मात्रा गिनने का विशेष अभ्यास कर लेना चाहिए ।

3. लघु और गुरु: छन्दशास्त्र में हृस्व स्वर को ‘लघु’ और दीर्घ स्वर को ‘गुरु’ कहते हैं। लघु में एक मात्रा होती है तथा इसका चिह्न ‘।’ है । गुरु में दो मात्रा होती है तथा इसका चिह्न ‘ऽ’ है ।
लघु तथा गुरु के नियम :
लघु- i. अ, इ, उ, ऋ-ये हृस्व स्वर हैं। इन स्वरों से जुड़े एक व्यंजन या संयुक्त व्यंजन को ‘लघु’ माना जाता है ‘क्रय’ और ‘कृषि’ में दोनों अक्षर लघु हैं । जैसे- सुभग; इसमें तीनों वर्ण लघु हैं।
ii हिन्दी छन्दों में चन्द्रविन्दुवाले हृस्व स्वर भी लघु माने जाते हैं । जैसे- ‘हँसना’ में ‘हँ’ लघु है ।
गुरु- (i) दीर्घ स्वर और उनसे मिले हुए व्यंजनों को भी गुरु कहते हैं। आ, ई, ऊ, ये दीर्घ स्वर हैं । रानी, मामा, दीदी, दूरी आदि सभी गुरु वर्ण हैं ।
(ii) संयुक्त स्वर एवं उनसे जुड़े व्यंजनों को भी गुरु माना जाता है । ए, ऐ, ओ, औये संयुक्त स्वर हैं, इनसे जुड़े होने के कारण, खे, खै, धो और पी सभी गुरु हैं।
(iii) अनुस्वार वाले सभी स्वर तथा अनुस्वार वाले सभी व्यंजन भी गुरु होते हैं । जैसे-मंद, हस में ‘में ‘ तथा ‘ह’ गुरु हैं ।
(iv) विसर्गान्त सभी वर्ण गुरु होते हैं। ‘दु:ख’ में ‘दु:’ और ‘विशेषत:’ में ‘त:’ गुरु हैं।
(v) एक शब्द में किसी द्वित्व या संयुक्त अक्षर से पहले का लघु अक्षर भी-यदि उसपर अधिक बल या भार पड़े तो-गुरु माना जाता है । जैसे- कुत्ता’ में “कु’ गुरु है।

4 संख्या, क्रम और गण: मात्राओं और वणों की गिनती की संख्या कहते हैं और कहाँ लघुवर्ण हो तथा कहाँ गुरु वर्ण हो-वणों के इस स्थितिक्रम को क्रम कहते हैं। संक्षेप में, किस छन्द में कितनी मात्राएँ या वर्ण हैं, यह उनकी संख्या है; और कहाँ लघु तथा कहाँ गुरु वर्ण हैं, यह उनका क्रम’ है । वणों की इस संख्या और क्रम को समझाने के लिए गणों की कल्पना की गयी है । तीन वणों का एक-एक गण मान लिया गया है । ये गण संख्या में आठ हैं- म, न, भ, य, ज, र, स, त । इन गणों के अनुसार ही मात्राओं का क्रम वर्णिक छन्दों में रहता है, इसीलिए इन्हें वर्णिक गण भी कहा जाता है। ‘ के हेर-फेर से छन्दों की रचना की जाती है।

5.यति: विराम या तनिक ठहरने को यति कहते हैं । छोटे छन्दों में आम तौर पर यति पाद के अन्त में होती है। परन्तु बड़े छन्दों में, जहाँ एक पाद में इतने अधिक अक्षर हों कि एक साँस में उनका उच्चारण कष्टकर हो, तो उनकी लय को ठीक रखने के लिए और उच्चारण करनेवाले को साँस लेने की सुविधा देने के लिए एक पाद में ही एक, दो या तीन विराम तक रखे जाते हैं । प्रारंभ में उच्चारण की सुविधा के लिए किया गया यह यति-विधान धीरे-धीरे छन्द के लक्षण का एक आवश्यक अंग बन गया ।
अनेक छन्द ऐसे हैं, जिनमें यति-भेद छन्द-भेद का कारण बन गया ।

6 गति: गीति-प्रवाह को गति कहते हैं। वर्णवृत्तों में इसकी कोई विशेष अपेक्षा नहीं रहती, क्योंकि गीति-प्रवाह लघु-गुरु वणों के स्थिति-क्रम के नियत कर देने से ही पैदा हो जाता है। परन्तु मात्रिक छन्दों में इसकी ओर विशेष ध्यान देना पड़ता है। हिन्दी के छन्द अधिकांशत: मात्राछन्द हैं। इनमें मात्राओं की संख्या ही छन्द का प्रधान लक्षण है। यह भी स्पष्ट है कि मात्राओं की संख्या समान होने मात्र से ही गीति-प्रवाह नहीं चलता । चौपाई में सोलह मात्राएँ होती हैं । निम्नलिखित पाद में भी सोलह मात्राएँ हैं।
जब सकोप लखन वचन बोले (16 मात्राएँ)
परन्तु इस पाद में गति (रवानगी) नहीं है, अत: इसे चौपाई का पाद नहीं माना जा सकता । इसे यदि इस प्रकार बदल दें तब गीति-प्रवाह ठीक हो जाता है,
लखन सकोप वचन जब बोले (तुलसी)

7 तुक: तुक का छन्द या ध्वनि-सन्तुलन से सीधा कोई सम्बन्ध नहीं है । यह छन्द शास्त्र का विषय न होकर साहित्यशास्त्र का विषय है । लेकिन हिन्दी में तुक का प्रयोग आरम्भ से होता चला आ रहा है। चरण के अन्त में वर्णों की आवृत्ति को ‘तुक’ कहते हैं । हिन्दी साहित्य में साधारणतया पाँच और चार मात्राओं का तुक मिलता है । संस्कृत छन्दों में तुक का महत्व नहीं है, परन्तु हिन्दी में तुक ही छन्द का प्राण है । कहीं पहले और तीसरे पाद का तुक मिलता है । दूसरा और चौथा पाद अतुक ही रहते हैं; जैसे- सोरठा में ।
कहीं दूसरे और चौथे पाद का तुक मिलता है। पहला और तीसरा पाद अतुक ही रहते हैं; जैसे- दोहा में ।

छन्द के भेद-

वर्ण और मात्रा के आधार पर छन्द के चार भेद हैं-
(1) वर्णिक छन्द,
(2) वर्णिक वृत्त,
(3) मात्रिक छन्द और
(4) मुक्तछन्द ।

(1) वर्णिक छन्द- केवल वर्ण-गणना के आधार पर रचे गये छन्द वर्णिक कहलाते हैं। वृत्तों की तरह इनमें गुरु-लघु का क्रम निश्चित नहीं होता । केवल वर्णसंख्या का ही निर्धारण रहता है । इनमें चार चरणों का होना भी अनिवार्य नहीं है । इनके दो भेद माने गये हैं-(1) साधारण और (2) दण्डक । 1 से 26 वर्ण तक के छन्द ‘साधारण’ और 26 से अधिके वर्णवाले छन्द ‘दण्डक’ होते हैं । हिन्दी के सुपरिचित छन्द घनाक्षरी (कवित), रूपघनाक्षरी और देवघनाक्षरी दण्डक भेद के अन्तर्गत आते हैं । ‘साधारण’ के अन्तर्गत ‘अमिताक्षर’ छन्द को लिया जा सकता है ।

(2) वर्णिक वृत- वर्णिक छन्द का ही एक क्रमबद्ध, नियोजित एवं व्यवस्थित रूप वर्णिक वृत्त होता है । वृत्त उस सम छन्द को कहते हैं, जिसमें चार समान चरण होते हैं विधान से नियोजित होने के कारण इसे गणबद्ध या गणात्मक छन्द भी कहा जाता है । संस्कृत साहित्य में ही विशेष रूप से वर्णिक वृत्तों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है । सवैया भी वर्णिक वृत्त है । शार्दूल विक्रीडित, मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी, इन्द्रवज़ा, उपेन्द्रवज़ा,

(3) मात्रिक छन्द- मात्रा-गणना पर आधारित छन्द मात्रिक छन्द कहे जाते हैं। इनमें वणों की संख्या भिन्न हो सकती है, परन्तु उनमें निहित मात्राएँ नियमानुसार होनी चाहिए। वर्ण-संख्या को छोड़कर केवल मात्रा-संख्या पर आधारित होने के कारण इन छन्दों की प्रकृति वर्णवृत्तों की तुलना में अधिक मुक्त तथा तरल रही है । हिन्दी साहित्य में मात्रिक छन्दों का विशेष प्रभुत्व रहा है । दोहा, चौपाई, रोला, सोरठा, वीर, हरिगीतिका, कुण्डलिया, छप्पय इत्यादि प्रमुख मात्रिक छन्द हैं।

(4) मुक्त छन्द- मुक्त छन्द का प्रयोग हिन्दी काव्यक्षेत्र में एक विद्रोह का प्रतीक रहा है । इसे स्वच्छन्द छन्द भी कहा जाता है । चरणों की अनियमित,हैं, जिन्हें प्राचीन शास्त्रीय दृष्टि से विहित नहीं माना गया और मुक्त छन्द का प्रयोग करनेवाले कवियों पर नाना प्रकार के व्यंग्य-विद्रुप होते रहे । निराला और पन्त को मुक्त छन्द को हिन्दी काव्य में संस्थापित करने का श्रेय है । निराला ने मुक्त छन्द को इस प्रकार परिभाषित किया- मुक्त छन्द तो वह है, जो छन्द की भूमि में रहकर भी मुक्त है।
इस छन्द में कोई नियम नहीं है । केवल प्रवाह कवित छन्द का-सा जान पडता है। कहीं-कहीं आठ अक्षर आप-ही-आप आ जाते हैं । असल में मुक्त छन्द का समर्थक उसका प्रवाह (गति) ही है । वही उसे छन्द सिद्ध करता है और उसका नियमाहित्य उसकी मुक्ति ।

पादों की रचना के आधार पर छन्द के तीन भेद और हैं

1. सम, 2. अर्धसम और 3. विषम ।

1. सम- जिन छन्दों के चारों पादों में एक ही लक्षण समान रूप से चरितार्थ हो, वे सम छन्द कहे जाते हैं । प्रयोग और संख्या की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में इन्हीं सम छन्दों की प्रचुरता है ।
2. अर्धसम- जिन छन्दों का प्रथम पाद तृतीय पाद के समान हो और द्वितीय पाद चतुर्थ पाद के समान हो, उन्हें अर्धसम कहते हैं । हिन्दी में दोहा, सोरठों आदि छन्द इसी श्रेणी के हैं ।
3. विषम- जो न सम हों न अर्धसम, वे विषम कहलाते हैं । वस्तुत: अनियमित छन्दों को ही विषम कह दिया गया है । ऐसे छन्द कम ही प्रचलित हैं । इस छन्द का एक उदाहरण ‘छप्पय’ है ।

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