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सुमित्रानन्दन पन्त कविता वे आँखे Sumitranndan pant kavita "We aankhe" vyakhya

सुमित्रानन्दन पन्त कविता वे आँखे व्याख्या


1
अधिकार की गुहा सरीखी
उन अखिों से डरता है मन,
भरा दूर तक उनमें दारुण
दैन्य दुख का नीरव रांदन!

वह स्वाधीन किसान रहा,
अभिमान भरा अखिों में इसका,
छोड़ उसे मंझधार आज
संसार कगार सदृश बह खिसका। (पृष्ठ-147)

शब्दार्थ

गुहा-गुफा। सरीखी-समान। दारुण-निर्दय, कठोर। दैन्य-दीनता। नीरव-शब्द रहित। रोदन-रोना। स्वाधीन-स्वतंत्र। अभिमान-गर्व। मैंझधार-समस्याओं के बीच। कगार-किनारा। सदृश-समान।
सन्दर्भ :-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘वे आँखें’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग:-  इस कविता में, कवि ने भारतीय किसान के भयंकर शोषण व दयनीय दशा का वर्णन किया है। 
व्याख्या-कवि कहता है कि शोषित किसान की गड्ढों में धैसी हुई आँखें अँधेरी गुफा के समान दिखती हैं जिनसे मन में अज्ञात भय उत्पन्न होता है। ऐसा लगता है कि उनमें बहुत दूर तक कोई कष्टप्रद दयनीयता व दुख का मौन रुदन भरा हुआ है। उसकी आँखों में भयानक गरीबी का दुख व्याप्त है। किसान का अतीत अच्छा था। वह सदैव स्वाधीन था। उसके पास अपने खेत थे। उसकी आँखों में स्वाभिमान झलकता था, परंतु आज वह अकेला पड़ गया है। संसार ने उसे समस्याओं के बीच में छोड़कर किनारे की तरह बहकर उससे दूर चला गया है। विशेष-

1. किसान की उपेक्षा का मार्मिक चित्रण है।
2. ‘अंधकार की गुह गुहा सरीखी’ में उपमा अलंकर है।
3. ‘दारुण दैन्य दुख’ में अनुप्रास अलंकार है।
4. ‘ कगार सदृश ‘ में उपमा अलंकार।
5. भाषा में लाक्षणिकता है।
6. संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है।
7. भाषा में प्रवाह है।


2.
लहराते वे खेत द्वगों में
हुआ बेदखल वह अब जिनसे,
हसती थी उसके जीवन की
हरियाली जिनके तृन-तृन से !

आँखों ही में घूमा करता
वह उसकी अखिों का तारा, 
कारकुनों की लाठी से जो 
गया जवानी ही में मारा। (पृष्ठ-147)

शब्दार्थ
लहराते-लहलहाते, झूमते। दृग-ऑख। बेदखल-अधिकार से वचित। तृन-तिनका। आँखों का तारा-बहुत प्यारा। कारकुन-जमींदार के कारिंदे।

सन्दर्भ :-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘वे आँखें’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग:-  इस कविता में, कवि ने भारतीय किसान के भयंकर शोषण व दयनीय दशा का वर्णन किया है। 
व्याख्या-किसान अपने अतीत की याद करता है। उसकी आँखों के समक्ष खेत लहलहाते नजर आते हैं जबकि अब उन खेतों से उसे बेदखल कर दिया गया है अर्थात् जमींदारों ने उसकी जमीन हड़प ली है। कभी इन खेतों के तिनके-तिनके में कभी हरियाली लहराती थी तथा उसके जीवन को सुखमय बनाती थी। आज वह सब कुछ खत्म हो गया है।
किसान की आँखों में उसके प्यारे पुत्र का चित्र घूमता रहता है। उसे वह दृश्य याद आता है। जब उसके जवान बेटे को जमींदार के कारिंदों ने लाठियों से पीट-पीटकर मार डाला था। यह बड़े दुख की बात थी।
विशेष-
1. इन पंक्तियों में जमींदार के अत्याचारों का वर्णन है।
2. ‘लहराते खेत’ तथा जमींदारों की लाठी से पिटकर मरे पुत्र में दृश्य बिंब साकार हो उठता है।
3. ‘तृन-तृन’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
4. ‘जीवन की हरियाली’ में रूपक अलंकार है।
5. ‘आँखों में घूमना’, ‘आँखों का तारा’ मुहावरे का सार्थक प्रयोग है।
6. भाषा में लाक्षणिकता है।
7. संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली है।


3.
बिका दिया घर द्वार,
महाजन ने न ब्याज की कड़ी छोड़ी,
रह-रह आँखों में चुभती वह
कुक हुई बरधों की जोड़ी !
उजरी उसके सिवा किसे कब
पास दुहाने आने देती? 
अह, आँखों में नाचा करती 
उजड़ गई जो सुख की खेती !(पृष्ठ-148)
सन्दर्भ :-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘वे आँखें’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग:-  इस कविता में, कवि ने भारतीय किसान के भयंकर शोषण व दयनीय दशा का वर्णन किया है। 
व्याख्या-कवि किसान की दयनीय दशा का वर्णन करता है। किसान कर्ज में डूब गया। महाजन ने धन व ब्याज की वसूली के लिए किसान की स्थायी संपत्ति को नीलाम कर दिया। उसे घर से बेघर कर दिया, परंतु अपने ऋण के ब्याज की पाई-पाई चुका ली। किसान को सर्वाधिक पीड़ा तब हुई जब बैलों की जोड़ी को भी नीलाम कर दिया गया। यह बात उसकी आँखों में आज भी चुभती है। उसके रोजगार का साधन छीन लिया गया।
किसान के पास दुधारू गाय उजली (जिसे वह प्यार से उजरी कहता था) थी वह उसके सिवाय किसी और को अपने पास दूध दुहने नहीं आने देती थी। मजबूरी के कारण किसान को उसे बेचना पड़ा। इन सब बातों को याद करके किसान बहुत व्यथित होता है। ये सारे दृश्य उसकी आँखों के सामने नाचते हैं। उसकी सुखभरी खेती उजड़ चुकी है, अत: वह निराश व हताश है।
विशेष-
1. किसान पर महाजनों के अत्याचारों का सजीव वर्णन है।
2. कुकीं व गरीबी के कारण बैल व गाय बेचने का दृश्य कारुणिक है।
3. ‘घर-द्वार’, ‘की कौड़ी’, ‘ने न’, ‘किसे कब’ में अनुप्रास अलंकार है।
4. ‘रह-रह’ में पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार है।
5. ‘आँखों में चुभना’, ‘आँखों में नाचना’ आदि मुहावरों का सार्थक प्रयोग है।
6. देशज शब्द ‘बरधों’ का सटीक प्रयोग है।
7. ग्रामीण परिवेश साकार हो उठा है।


4.
बिना दवा-दपन के घरनी
स्वरगा चली,-अखं आती भर,
देख-रेख के बिना दुधमुही
बिटिया दो दिन बाद गई मर!
घर में विधवा रही पताहू,
लछमी थी, यद्यपि पति घातिन,
 पकडु मॅाया, कोतवाल ने,
डूब कुएँ में मरी एक दिन। (पृष्ठ-148-149)

शब्दार्थ

दवा-दर्पन-दवा आदि। घरनी-पत्नी। स्वरग-स्वर्ग। दुधमुँही-नन्हीं। पतोहू-पुत्रवधू। लछमी-लक्ष्मी। घातिन-मारने वाली।

सन्दर्भ :-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘वे आँखें’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग:-  इस कविता में, कवि ने भारतीय किसान के भयंकर शोषण व दयनीय दशा का वर्णन किया है। 
व्याख्या-किसान की पारिवारिक स्थिति का वर्णन करते हुए कवि बताता है कि उसकी पत्नी दवा-दारू के अभाव में मर गई। उसके पास संसाधनों की इतनी कमी थी कि वह उसका इलाज भी नहीं करा सका। यह सोचकर उसकी आँखों में आँसू आ जाते हैं। पत्नी की मृत्यु के बाद उस पर आश्रित किसान की नन्हीं बच्ची भी दो दिन बाद मर गई।

किसान के घर में उसकी विधवा पुत्रवधू बची हुई थी। उसका नाम लक्ष्मी था, परंतु उसे पति को मारने वाला समझा जाता था। समाज में पति की मृत्यु होने पर उसकी पत्नी को हत्या का जिम्मेदार मान लिया जाता है। एक दिन कोतवाल ने उसे बुलवाकर उसकी इज्जत लूटी। लाज के कारण उसने कुएँ में कूदकर आत्महत्या कर ली। इस प्रकार से किसान का पूरा परिवार ही बिखर गया था।
विशेष-
किसान की गरीबी, शोषण व लाचारी का सजीव वर्णन है।
‘आँखें भर आना’ मुहावरे का सार्थक प्रयोग है।
घरनी, स्वरग, लछमी आदि तद्भव शब्दों का प्रयोग भाषा को सहजता प्रदान करता है।
अनुप्रास अलंकार है-दवा-दर्पन, दो दिन।
पति की हत्या के बाद नारी के प्रति समाज के कटु दृष्टिकोण का पता चलता है।
खड़ी बोली है।
पुलिस के अत्याचार का वर्णन है।


5.
खेर, पैर की जूती, जोरू
न सही एक, दूसरी आती,
पर जवान लड़के की सुध कर
साँप लौटते, फटती छाती।
पिछले सुख की स्मृति आँखों में 
क्षण भर एक चमक हैं लाती, 
तुरत शून्य में गड़ वह चितवन
तीखी नोंक सदृश बन जाती। (पृष्ठ-149)

शब्दार्थ

पैर की जूती-उपेक्षित। जोरू-पत्नी। सुधकर-याद करना। साँप लोटते-अत्यधिक व्याकुल होना। फटती छाती-बहुत दुख होना। स्मृति-याद। चमक लाना-खुशी लाना। चितवन-दृष्टि। शून्य-आकाश। सदृश-समान।

सन्दर्भ :-प्रस्तुत काव्यांश पाठ्यपुस्तक आरोह भाग-1 में संकलित कविता ‘वे आँखें’ से लिया गया है। इसके रचयिता सुमित्रानंदन पंत हैं।
प्रसंग:-  इस कविता में, कवि ने भारतीय किसान के भयंकर शोषण व दयनीय दशा का वर्णन किया है। 
व्याख्या-किसान को अपनी पत्नी की मृत्यु पर विशेष शोक नहीं है। वह उसे पैर की जूती के समान समझता है। यदि एक नहीं रहती तो दूसरी से विवाह करके लाया जा सकता है, परंतु उसे अपने जवान बेटे की याद आने पर बहुत कष्ट होता है। उसकी छाती पर साँप लौट जाते हैं तथा छाती फटने लगती है। उसे बेटे की मृत्यु का असहनीय कष्ट है।
किसान जब पिछले खुशहाल जीवन को याद करता है तो उसकी आँखों में एक क्षण के लिए प्रसन्नता की चमक आती है, परंतु अगले ही क्षण जब वह सच्चाई के धरातल पर सोचता है, वर्तमान में झाँकता है तो उसकी नजर शून्य में अटककर गड़ जाती है, वह विचार शून्य होकर टकटकी लगाकर देखता है और उसकी नजर तीखी नोक के समान चुभने वाली हो जाती है।

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