हिंदी काव्य दोष/ काव्यशास्त्र दोष... kavyashastr dosh
काव्य दोष(kavya dosh)
आचार्य मम्मट ने अपनी काव्य परिभाषा में दोषहीनता को काव्य का एक लक्षण मानते हुए लिखा है:
’’तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि’’
यहां प्रयुक्त ’अदोषौ’ का तात्पर्य दोषहीनता से है। काव्य वह शब्दार्थ है जो दोषहीन, गुणयुक्त और कभी-कभी अलंकार रहित होता है।
काव्य दोष की परिभाषा(kavya dosh ki paribhasha)
काव्यास्वाद में बाधक उद्वेगजनक तत्व काव्य दोष कहलाते हैं: ’’उद्वेगजनको दोषः’’
ये दोष काव्य के मुख्य अर्थ की प्रतीति में बाधा पहुंचाते हैं। दोष शब्द, अर्थ और रस-इन तीनों के सौन्दर्य में व्याघात उत्पन्न करता है।
आचार्य विश्वनाथ के अनुसार, ’’रस के अपकर्षक दोष कहलाते हैं।’’
काव्य दोषों से काव्य का माधुर्य एवं सौन्दर्य नष्ट हो जाता है और काव्यानन्द में व्याघात पङता है। इसीलिए दोषहीन काव्य को उत्तम काव्य माना गया है।
काव्य दोषों के कितने भेद होते है ?
काव्य दोष तीन प्रकार के होते हैं:
1) शब्द दोष
2) अर्थ दोष
3) रस दोष
इन दोषों पर आचार्य मम्मट एवं विश्वनाथ ने पर्याप्त विचार किया है।
प्रमुख काव्य दोषों का विवरण निम्नवत् है:
(1) श्रुति कटुत्व दोष – जो शब्द सुनने में अप्रिय लगे तथा कठोर प्रतीत हों, उनके कारण काव्य में श्रुति कटुत्व दोष आता है।
जैसे:
भर्त्सना से भीत हो वह बाल तब चुप हो गया।
यहां ’भर्त्सना’ में श्रुति कटुत्व दोष है।
(2) च्युत संस्कृति दोष – जहां किसी शब्द का प्रयोग व्याकरण के प्रतिकूल होता है, वहां च्युत संस्कृति दोष होता है।
जैसे:
इस निराशता को छोङो, आशा से लो काम।
यहां ’निराशता’ शब्द व्याकरण की दृष्टि से गलत है अतः च्युत संस्कृति दोष है।
(3) अश्लीलत्व दोष – जहां काव्य में अश्लील शब्दों का प्रयोग हो वहां अश्लीलत्व दोष होता है।
जैसे:
मिची आंख पिय की निरखि वायु दीन तत्काल
यहां ’वायु’ का तात्पर्य अपान वायु (पाद) से है अतः अश्लीलत्व दोष है।
(4) ग्राम्यत्व दोष – साहित्यिक रचना में बोलचाल के ग्रामीण शब्दों का प्रयोग होने पर ग्राम्यत्व दोष माना जाता है,
जैसे:
मूंड़ पै मुकुट धरे सोहत गोपाल हैं।
यहां सिर के लिए ’मूंड़’ शब्द का प्रयोग हुआ है जो ग्राम्यत्व दोष से युक्त है।
(5) अप्रतीतत्व दोष – लोक व्यवहार में न प्रयुक्त होने वाले शास्त्रीय शब्दों का काव्य में प्रयोग होने पर अप्रतीतत्व दोष होता है,
जैसे:
विषमय यह गोदावरी अमृतन को फल देत।
यहां विष शब्द का प्रयोग जल के लिए होता है, जो सामान्यतः लोक व्यवहार में प्रयुक्त नहीं होता अतः अप्रतीतत्व दोष है।
(6) क्लिष्टत्व दोष – दृष्टकूट पदों में प्रयुक्त ऐसी शब्दावली जिसका अर्थ गुणा भाग करके कठिनाई से निकलता है, क्लिष्टत्व दोष से युक्त मानी जाती है,
जैसे:
नखत वेद ग्रह जोरि अर्द्ध करि को बरजै हम खात
गोपियाँ कहती हैं कि कृष्ण के वियोग में यदि हम नक्षत्र (27), वेद (4), ग्रह (9) जोङकर अर्थात् 27$4$9 त्र 40 का आधा अर्थात् 20 (बीस) या ’विष’ खा लें तो हमें कौन रोकेगा। यहां क्लिष्टत्व दोष है।
(7) न्यून पदत्व दोष – जहां अभीष्ट अर्थ को सूचित करने वाले पद की कमी हो और अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कोई शब्द जोङना पङे वहां न्यून पदत्व दोष होता है,
जैसे:
’’पानी, पावक पवन प्रभु ज्यों असाधु त्यों साधु’’
पानी, पावक पवन, और प्रभु साधु और असाधु के साथ समान व्यवहार करते हैं -कवि यह कहना चाहता है, किन्तु समान व्यवहार शब्द को यहां छोङ दिया गया है जिससे अर्थ में बाधा उत्पन्न हो रही है, अतः न्यून पदत्व दोष है।
(8) अधिक पदत्व दोष – जहां काव्य में अनावश्यक शब्दों का प्रयोग किया जाए, वहां अधिक पदत्व दोष होता है। ऐसे अनावश्यक शब्दों को हटा देने से काव्य का सौन्दर्य बढ़ता है, घटता नहीं।
जैसे:
लपटी पुहुप पराग पद सनी स्वेद मकरन्द
पराग तो पुष्प का ही होता है अतः यहां ’पुहुप’ शब्द अनावश्यक है इसलिए अधिक पदत्व दोष है।
(9) अक्रमत्व दोष – जहां कोई पद उचित स्थान पर प्रयुक्त न होकर अनुचित स्थान पर प्रयुक्त हो और उसका क्रम जोङने में कठिनाई हो वहां अक्रमत्व दोष होता है,
जैसे:
विश्व में लीला निरन्तर कर रहे हैं मानवी
यहां मानवी शब्द लीला से पहले प्रयुक्त होना चाहिए। वे प्रभु इस संसार में निरन्तर मानवी लीला कर रहे हैं।
(10) दुष्क्रमत्व दोष – जहां शास्त्र अथवा लोक के विरुद्ध क्रम होता है, वहां दुष्क्रमत्व दोष माना जाता है,
जैसे:
’’नृप मो कहं हय दीजिए अथवा मत्त गजेन्द्र’’
याचक को पहले हाथी मांगना चाहिए और फिर हाथी न मिलने पर घोङे की याचना करनी चाहिए, किन्तु यहां पहले ’हय’ अर्थात् घोङे की और तदुपरान्त हाथी की याचना करके लोक विरुद्ध क्रम रखा गया है अतः दुष्क्रमत्व दोष है।
(11) पुनरुक्ति दोष – जहां किसी शब्द से किसी अर्थ की प्रतीति हो जाने पर भी उसी अर्थ वाले शब्द का दुबारा प्रयोग किया गया हो, वहां पुनरुक्ति दोष होता है,
जैसे:
सब कोऊ जानत तुम्हें सारे जगत जहान।
यहां जगत के बाद जहान का प्रयोग अनावश्यक रूप से करने से पुनरुक्ति दोष आ गया है।
(12) रस दोष – 1. जहां भाव व्यंग्य रूप में न होकर स्वयं ही अपना वर्णन करने लगे वहां स्वशब्द वाच्य रस दोष होता है,
जैसे:
विस्मृति आ अवसाद घेर ले
नीरवते बस चुप कर दे।
यहां नीरवता की स्थिति में चुप कर दे कहने से स्वशब्द वाच्य रस दोष आ गया है।
वर्ण प्रतिकूलता के कारण कहीं-कहीं इस प्रकार का रस दोष आ जाता है। जैसे श्रृंगार रस में कठोर वर्णों का प्रयोग या वीर रस में कोमल वर्णों का प्रयोग नहीं होना चाहिए।
जैसे:
’’मुकुट की उटक लटक विवि कुण्ड कौ
भौंह की मटक नेंक आंखिन दिखाउ रे।।’’
यहां श्रृंगार रस में ’ट’ जैसे कठोर वर्ण का बारम्बार प्रयोग होने से रस दोष है।
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