गजल
प्यार करने की सजा पाई हैं।
जुर्म सहने की सजा पाई है।
कुर्बानी यों के चलन पर फ़िदा थे हम,
कुर्बानियां की भी सजा पाई है।
सारी शराफत के ठेकेदार हैं हम,
उसी शराफत से यह रुसवाई है।
बातें करता है जमाना मीठी-मीठी,
घोले मिश्री मगर छुरी छुपाई है।
किस से किस बात का शिकवा हम करें?
सारी कायनात में ही रंगत इसकी छाई है।
जब तलक सांस है मायूस ना हो जाना,
इस जीवन की यही रीत चली आई है।
रश्मि लता मिश्रा
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