विधा – लेख
शीर्षक–‘वर्तमान कविताओं का संघर्ष’
“कल्पना का कार्य जहां से शुरू होता हैं वहीं से ज्ञानवृत्ति सजग हो उठती हैं जिसे हम कविताओं की कलाओं का प्रथम क्षण मानते हैं वहीं कविताएं संवेदना परक जीवन महत्त्व से न्यस्त न होकर वह आम तत्व में छटपटाहट भरें शब्दों , स्वरों व अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्फुटित हो रही हैं जो कि कविता के मनोभावों की मनोदशा के तत्व रूप को बदलने में लगा हुआ हैं ।नवीन शब्द अर्थ भंगिमाएं व नवीन व्यंजनाओं को निरन्तर जन्म दे रही हैं ।
कविता का हिन्दी साहित्य में यथार्थवादी काव्यधारा का इतिहास रहा हैं ।किन्तु नई कविताओं के दौर में बुनियादी तौर पर कविता को यथार्थ सामाजिक रूपों में निहित जटिलताओं के पक्ष में नहीं रखा ।किन्तु वर्तमान समय में कविता व्यक्ति को स्वयं आईने के रूप में ढाल कर स्वयं को मानों स्वतः बिखेर रही हैं ।जिसका पर्याय शून्य से लेकर व्यक्तिगत उद्देश्यों ,संघर्षों,कल्पनाओं के साथ अपना पक्ष रखती हैं ।जिसका उद्देश्य समझना असम्भव नहीं होता ,जिस पर बहस जरूरी नहीं होती,वह मात्र मानव के स्वप्न भाग की मनोदशा की व्यक्तिगत समीक्षा हैं जिसे हम व्यक्ति की काव्यात्मक आत्मकथा के स्वरूप में छोटी– छोटी झांकियों के रूप में देखते,पढ़ते वा सुनते हैं ।
अतः यह कह सकते हैं कि वर्तमान कविताओं के कलमकार मजदूर की भांति अपने कलम कर्म करते हैं किन्तु काव्य गीतों, गजलों,कविताओं में तटस्थता को बनाए रखने में पूर्णतः सक्षम नहीं होते ।जिसे वर्तमान कविताओं का संघर्ष मानते हुए यह स्वीकार करना चाहिए कि आज के दौर में कविता स्वयं चलता –फिरता एक असंगत संघर्षमयी व्यक्तित्व के रूप में आज विद्यमान हैं । जैसे –कोई सांकेतिक भाषा,शब्द, रूप या लोबो आदि हो ।।"
लेखिका – रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।
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