निबन्ध् का सार
अशोक वृक्ष पर छोटे-छोटे लाल-लाल पफूलों के मनोहर गुच्छों को देख लेखक का मन मुग्ध् हो उठा और उसे लगा कि उसके सौंदर्य और उसकी कमनीयता से प्रभावित होकर ही कामदेव ने अपने तूणीर में उसे स्थान दिया होगा। कामदेव के पाँच बाण हैं- कमल, आम, नीलोत्पल, नवमलिलका और अशोक।
प्राचीन भारत में जिस अशोक को इतना सम्मान दिया जाता था, आज उसके प्रति भारतीयों की उदासीनता और उपेक्षा को देख लेखक का मन उदास हो जाता है। इस उपेक्षा भाव के कारण जुटाने के प्रयास में वह अध्मूले इतिहास के आकाश में चील की तरह मंडराता है और जहाँ-कहीं कोर्इ चमकीली चीज नजर आती है, उस पर झपटटा मारता है।
अतीत में विचरण करते हुए जब वह भारतीय साहित्य पर दृषिटपात करता है तो उसे पता लगता है कि भले ही कालिदास पूर्व भारतवासी अशोक के पफूलों से परिचित रहे हों, परन्तु जीवन और साहित्य में इसका प्रवेश कालिदास के युग में ही हुआ था। कालिदास की रचनाओं से पहली बार हमें ज्ञात होता है कि लोगों को विश्वास था कि सुन्दरियों के पदाघात से अशोक पफूलता था, वे अपने कानों में अशोक के पफूल और किसलय आभूषण के रूप में धरण करती थीं, और उनसे अपने वेशों का प्रसाध्न करती थीं। इन पफूलों को सौन्दर्य और कामोíीपन का प्रतीक भी माना जाता था। पर मुसलमानी शासन का आरम्भ होते ही कवियों और नाटककारों ने उसकी अवमानना करनी आरम्भ कर दी और वह साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। लोगों ने उसे याद तो किया, उसका नाम भी वे यदा-कदा लेते रहे पर उसी प्रकार जैसे किसी प्राचीन अनुपयोगी वस्तु या पूर्वज का। लेखक को सबसे अधिक ग्लानि तो इस बात से होती है कि हम असली अशोक को पहचानते तक नहीं हैं और हमने एक ऐसे वृक्ष को अशोक कहना शुरू कर दिया है जिस पर पफूल तक नहीं आते।
इसी चिन्तन-प्रक्रिया में लेखक भरहुत, बोध्गया, सांची, मथुरा आदि की यक्षिणी मूर्तियों की गठन और बनावट से अशोक का सन्दर्भसूत्रा जोड़ता है, हजारों-लाखों वर्ष के साहित्य, शिल्प, ध्र्म, संस्Ñति और जीवन के आर-पार झाँकता है, और पाठकों के सम्मुख उनके चित्रा प्रस्तुत करता है। उसका कथन है कि र्इसा की प्रथम शताब्दी के आस-पास भारतीय ध्र्म, साहित्य और शिल्प में अशोक को अदभुत गौरव और महत्त्व प्राप्त था। गन्ध्र्व और कन्दर्य को एक ही शब्द के भिन्न उच्चारण बताते हुए वह कहता है कि गन्ध्र्व, यक्ष आदि आयोत्तर जातियाँ थीं। उनके उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, वज्रपाणि वक्षपति थे। इन्होंने भारतीय ध्र्मसाध्ना को एक नया रूप दिया। इनकी संस्Ñति में भोग-विलास पर बल था- ध्न, सोम-पान, अप्सराएँ, पफूलों का प्रयोग - इसका साक्षी है। वामन-पुराण की यह कथा कि कामदेव का ध्नुष जब पृथ्वी पर टूट कर गिरा तो कोमल पफूलों में बदल गया, भी इस बात का संकेत देती है कि इन जातियों को पुष्पों से बड़ा लगाव था तथा उनका रहन-सहन, सुख-सुविèााओं, ऐश्वर्य और भोग विलास से परिपूर्ण था। महाभारत की अनेक कथाएँ जिनमें संतान की इच्छा के लिए सित्रायों को यक्षों के आस-पास नियोग के लिए जाते दिखाया गया है, पत्थरों पर उत्कीर्ण नग्न स्त्राी-मूर्तियाँ, अशोक के लाल पफूलों को स्मरवर्èाक मान कर उनका सेवन, चैत्रा शुक्ल अष्टमी को व्रत और अशोक की पत्तियों के भक्षण से स्त्राी के संतानवती होने का उल्लेख यक्षों में पृथ्वी के नीचे गड़ी हुर्इ निधियों का पता लगाने की कला, उनकी नृत्य-संगीत में रुचि आदि - सभी इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यक्ष-गंध्वो± की सभ्यता भोग-विलास, आमोद-प्रमोद और सुख-संधन की सभ्यता थी।
पुराणों की गवाही देता हुआ लेखक कहता है कि आयो± का अनेक जातियों - असुरों, दानवों, दैत्यों, राक्षसों, गन्èावो±, यक्षों, वानरों, भालुओं आदि से संघर्ष हुआ। इनमें कुछ जातियाँ जैसे- असुर, दानव, दैत्य और राक्षस गर्वीली थीऋ उन्होंने आयो± की अध्ीनता नहीं मानी, टक्कर लीऋ इसीलिए आयो± ने उनके लिए अपमानजनक शब्दावली का प्रयोग किया है और अपने गं्रथों में उनका स्मरण और उल्लेख घृणा के साथ किया है। इसके विपरीत पहाड़ों पर बसने वाले यक्ष, गन्ध्र्व, किन्नरऋ विधाचर, सि( आदि ने जो शांतिप्रिय थे, आयो± की अध्ीनता स्वीकार कर ली। वे उनके मित्रा बन गये। आयो± ने उन्हें द्वितीय कोटि के देवता या अपदेवता माना है। लेखक का निष्कर्ष है कि वर्तमान भारत की सभ्यता और संस्Ñति, रीति-नीति विशु( आर्य न होकर अनेक आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण है।
इस संदर्भ में गन्ध्वो± की भूमिका की चर्चा करते हुए लेखक बताता है कि गन्ध्वो± की भोगवादी जीवन-दृषिट से प्रभावित होने के कारण ही बौ(, शैव और शाक्त ध्मो± में विÑतियाँ आयीं। वज्रयान, कौल-साध्ना और कापालिक मतों में दिखार्इ देने वाली विÑतियाँ इसका प्रमाण हैं। वैराग्य, साध्ना, तपस्या, इनिद्रयदमन आदि का मार्ग छोड़ ये मदिरा और मदिराक्षी के सेवन में ही साध्ना का चरमोत्कर्ष मानने लगे। योग और भोग के इस अपूर्व मिलन ने व्यभिचार और माया को जन्म दिया।
दूसरी ओर गन्ध्र्व और यक्षों के कला-पे्रम, जीवन-दृषिट आदि के परिणामस्वरूप पूजा, उत्सव, समारोह आदि का आयोजन होने लगा। इनमें मदनोत्सव का अत्यन्त सरस-मनोहर वर्णन संस्Ñत के अनेक गं्रथों में मिलता है और उनसे पता चलता है कि उस समय भारत कितना समुन्नत, समृ( एवं सुखी देश था और यहाँ के लोग कितने प्रÑति-पे्रमी और कला-उपासक थे।
गौरवपूर्ण अतीत से ßासोन्मुख मèयकाल की तुलना करते-करते लेखक काल, परिवर्तन एवं जिजीविषा पर अपने विचार व्यक्त करता है। उसके अनुसार काल दुर्दम चक्र किसी को नहीं बख्शता - देश, जाति, ध्र्म, संस्Ñति, सभ्यता, कला आदि सब काल की अबाधित अनाहत दुर्दम धरा में बह कर लुप्त हो जाते हैं या नया रूप धरण कर लेते हैं। संघर्ष परिवर्तन लाता है पर यही नयी शकित भी प्रदान करता है। इस प्रकार काल और परिवर्तन शकितशाली तो हैं पर उनसे भी अधिक शकितशाली हैं मानव की जीने की इच्छा, उसकी जीवन-शकित। उसी के कारण वह कुछ चीजें ग्रहण करता है, और कुछ त्याग देता हैऋ जो समय के अनुकूल हैं वह ग्रहण किया जाता हैऋ जिसे बोझ समझा जाता है, उसे पफेंक दिया जाता है। इतिहास इसका साक्षी है। सम्राटों और सामन्तों की मोहक और मादक जीवन-प(ति, ध्र्माचायो± द्वारा बताये गये साध्ना-मार्ग और उनकी विपुल ज्ञान-राशि, ध्निक वर्ग द्वारा जुटाये गये ऐश्वर्य और भोग के असंख्य उपकरण - सब कुछ लुप्त हो गये। अशोक का वृक्ष और पफूल सामन्तीय सभ्यता से जुडे़ थेऋ अत: जब वह सभ्यता लुप्त हुर्इ तो लोग अशोक को भी भूल गये। उसका गौरव, महिमा आदि सब विस्तृत कर दिये गये। साहित्य, ध्र्म, कला सभी क्षेत्राों में उसे अपदस्थ कर दिया गया।
निबन्ध् के अन्त में लेखक स्वयं को प्रबोध् देते हुए पाठकों को भी परामर्श देता है कि परिवर्तन सृषिट का नियम है, उत्थान-पतन, और सुख-दुख का चक्र घूमता रहता है, अत: सिथतप्रज्ञ रहकर ही मनुष्य सुखी रह सकता है, उदास होना व्यर्थ है। हमें समय के अनुरूप स्वयं को ढालना चाहिए, जैसी बयार चले उसी के अनुरूप अपनी पीठ करनी चाहिए - ''जैसी चले बयार पीठ तब तैसी दीजे।
ललित निबन्ध् के रूप में ''अशोक के फूल
शानितनिकेतन और रविन्द्रनाथ टैगोर के सम्पर्क में रहने वाले तथा मानववादी दृषिटकोण वाले हजारीप्रसाद द्विवेदी मानव-जीवन के प्रवाह को अखण्ड तथा मानव की जिजीविषा को अक्षुष्ण मानते हैं। वह मानते हैं कि साहित्य मानव-सापेक्ष होना चाहिएऋ उसका लक्ष्य मनुष्य का उत्थान करना, मानव समाज को सुन्दर बनाना, मानव चरित्रा का उन्नयन करना और सामाजिक चेतना को झकझोर कर उसे विश्व-मंगल की दिशा में उन्मुख करना होना चाहिए। मात्रा वैयकितक अनुभूतियों की अभिव्यकित को वह सद साहित्य नहीं मानते। अत: उनके निबन्धें में लालित्य होत हुए भी वे मात्रा वैयकितक भावोच्छवास नहीं हैं। अपने निबन्धें के विषय में उन्होंने स्वयं लिखा है, ''इसमें मेरा मनुष्य प्रधन है, शास्त्रा गौण।
द्विवेदी जी की साहित्य प्रतिभा बहुमुखी है। उन्होंने इतिहासकार, आलोचक, उपन्यासकार और निबन्ध्कार सभी रूपों में विशेष ख्याति अर्जित की है। उनके 8 निबन्ध्-संकलन प्रकाशित हुए हैं जिनके कुछ निबन्ध् भाषण के रूप में और कुछ आकाशवाणी से प्रसारित होने वाली वात्र्ता के रूप में लिखे गये थे। अन्य निबन्ध् या तो पत्रा-पत्रिकाओं के लिए अथवा स्वान्त:सुखाय लिखे गये। बहुश्रुत और बहुज्ञ द्विवेदी जी का संस्Ñत, साहित्य, इतिहास, संस्Ñति,
ध्र्म, दर्शन, भाषा-विज्ञान, ज्योतिष, प्राच्य कला आदि का ज्ञान विसिमत कर देने वाला है। इस ज्ञान का उपयोग उनके विविध् निबन्धें में किया गया है। अत: उनके सभी निबन्धें में वस्तुनिष्ठ प्रतिपादन दृषिटगत होता हैऋ इस प्रतिपादन की दो शैलियाँ हैं- पहली में विषय-विवेचन के क्रम में उनका व्यकितत्व झांकता रहता है और दूसरी में विषय का प्रतिपादन ही मुख्य है।
पहले वर्ग के निबन्धें में लालित्य, भावोच्छवास, लेखक की आत्मीयता, कल्पना की उड़ान, कथा की रोचकता और कलात्मक अभिव्यकित के दर्शन होते हैं, तो दूसरे वर्ग के निबन्धें में गूढ़ गंभीर विचार, विषय का विवेचन और सूक्ष्म विश्लेषण तथा लेखक का आपार ज्ञान और पांडित्य दिखार्इ देता है। पहले वर्ग के निबन्धें को व्यकित-व्यंजक या ललित निबन्ध् और दूसरे वर्ग के निबन्धें को विचारात्मक या विचारपरक निबन्ध् की संज्ञा दी जा सकती है।
ललित निबन्ध् में बु(ितत्त्व की अपेक्षा âदय तत्त्व की, विचारों के स्थान पर भावों की प्रधनता रहती है। एक ओर लेखक का आत्मतत्त्व, उसका व्यकितत्व, उसकी निजी प्रतिक्रियाएँ, उसकी निजी रुचि, उसका भावोच्छवास दृषिटगत होता है और दूसरी ओर उसमें कल्पना की उड़ान, कथा की सी रोचकता और शैली में काव्यात्मक सौष्ठव के दर्शन होते हैं। भावमयता की भूमि पर विचरण करता हुआ निबन्ध् पाठकों के âदय को स्पर्श करता है, उसे भावमग्न करता चलता है। विषय-वैविèय और लेखक की मन:सिथति के कारण उसमें कहीं धराशैली और कहीं विक्षेप शैली का प्रयोग होता है।
द्विवेदी जी का ''अशोक के पफूल ललित निबन्ध् है जिसमें भावना, कल्पना और अनुभूति की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, जिसमें भावुकता और सâदयता का ज्वार उठता-गिरता रहता है और जिसमें लेखक के अनुभवों की दीर्घ परम्परा समाविष्ट है। उसमें स्वाध्ीन चिन्तन है और है साथ ही मानसिक क्रीड़ा-विलास। उदार दृषिटकोण और भावजन्य संवेदन और परिणामस्वरूप वह नगण्य पदाथो± और सामान्य घटनाओं पर लिखते हुए अतीत में विचरण करने लगते हैं, भारतीय संस्Ñति की विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए पाठक को अपने साथ प्राचीन गौरवमंडित काल की सैर कराते हैं और उसकी कल्पना को अभिषिक्त तथा भावना को उद्वेलित करते चलते हैं। ''अशोक के पफूल में अशोक के वृक्ष और उसके मनोहर लाल पफूलों के प्रभाव का वर्णन करते हुए लेखक कभी भारतीय ध्र्म-साध्ना, कभी कालिदास की रचनाओं, कभी आर्य और आर्योत्तर जातियों के संघर्ष का वर्णन करने लगता है। कभी उसकी दृषिट भारत की प्राÑतिक सम्पदा पर पड़ती है तो कभी वह देश के सौन्दर्य, वैभव और कला-सम्पदा की कहानी कहने लगता है।
''विषय का वस्तुनिष्ठ प्रतिपादन करते समय भी द्विवेदी जी का व्यकितत्व-उनका मानवतावादी दृषिटकोण, उनकी बहुज्ञता, उनकी भावुकता और सâदयता, उनका पफक्कड़पन, उनका भारतीय संस्Ñति के प्रति लगाव स्पष्ट दृषिटगोचर होता है। अत: निबन्ध् में स्वत: लालित्य की सघनता आ गयी है। कहीं वह अपनी धरणा व्यक्त करता है, कहीं अपनी मान्यता समझाता है, कहीं अपना विचार प्रकट करता है, कहीं अपना सम्मति देता है। कहीं वह भावोच्छवसित होकर प्रशंसा करता है तो कहीं ग्लानि, निराशा और आक्रोश प्रकट करता है। उनकी गहन और तीव्र अनुभूति इस निबन्ध् को ललित निबन्ध् बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कहीं प्रÑति के सौन्दर्य पर मुग्ध् हो वह उल्लसित हो उठाता है।
''इन छोटे-छोटे लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! कभी उसके प्रति उपेक्षा और उदासीनता को देख वह उदास हो उठता है, लेकिन पुषिपत अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता है। वह कभी क्षोभ से भर जाता है, ''क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी? जले पर नमक तो यह कि एक तरंगायित पत्रावाले निपफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके। प्राचीन साहित्य और शिल्प में अशोक वृक्ष, उसके पफूलों, विसलयों आदि का गौरव स्मरण कर वह अतीत में रमना चाहता है, पर वर्तमान का कठोर यथार्थ जब उसे ऐसा करने से रोकता है तो वह चीत्कार कर उठता है, ''मेरा मन प्राचीन काल के कुज्झटिकाच्छन्न आकाश में दूर तक उड़ना चाहता है। हाय, पंख कहां हैं! करुण उल्लास की झंझा की प्रतिèवनि निबन्ध् में सर्वत्रा व्याप्त है : अनुभूति की सघनता और तीव्रता निम्नांकित पंकितयों में चरम बिन्दु पर पहुँच गयी है, ''मैं जब अशोक के लाल स्तबकों को देखता हूँ तो मुझे पुराना वातावरण प्रत्यक्ष दिखार्इ दे जाता है। ं ं ं ं ं नीचे हल्की रुनझुन और ऊपर लाल पफूलों का उल्लास ं ं ं ं ं मैं सचमुच इस उत्सव को मादक मानता हूँ। अशोक के स्तवकों में वह मादकता आज भी है, पर कौन पूछता है? इन पफूल के साथ क्या मामूली स्मृति जुड़ी हुर्इ है? भारतवर्ष का सुवर्ण युग इस पुष्प के प्रत्येक दल में लहरा रहा है।
लेखक की विचार-तरंगे कभी इतिहास की ओर दौड़ती हैं और वह कालिदास के युग की संस्Ñति और उस युग के साहित्य की तस्वीर खींचने लगता है, कभी मुसलमानी सल्तनत में हुए पतन, ßास और अवनति पर आँसू बहाने लगता है, कभी यक्षों और गन्ध्वो± के ऐश्वर्य और रसपूर्ण जीवन का चित्रा उरेहता है तो कभी उनकी भोगलिप्सा और विलासपूर्ण दृषिटकोण के कारण भारतीय ध्र्म साध्नाओं-बौ(ों, शैवों और शाक्तों में पफैलने वाले अभिचार की निंदा करने लगता है। पुराणों और महाभारत की कथाओं, भरहुत, साँची और मथुरा में प्राप्त मूर्तियों का साक्ष्य देकर वह आर्य और आर्येतर जातियों के संघर्ष और उस संघर्ष की परिणति की जानकारी प्रदान करता हुआ बताता है कि गन्ध्र्व, यक्ष आदि पहाड़ी जातियाँ थीं और उनका समाज उस स्तर पर था जिसे आज ''पुनालुअन सोसायटी कहा जाता है।
लेखक द्वारा प्रस्तुत ये चित्रा कल्पनाश्रित नहीं हैं, उनके पीछे पुराण, शास्त्रा, ध्र्मगं्रथों, साहितियक रचनाओं- सरस्वती कण्ठाभरण, मालविकागिनमित्रा, रत्नावली, कुमारसंभव - आदि का ठोस आधर है, उनमें प्रत्युक्त कथानक-रूढि़यों का आश्रय लिया गया है।
लेखक का प्रÑति-पे्रम और प्राÑतिक दृश्यों का कवित्वपूर्ण, सरस और मनोमय चित्राण भी इस निबन्ध् के लालित्य को बढ़ाता है। प्रÑति का रम्य सौन्दर्य देख द्विवेदी जी का âदय उल्लासित हो उठता है और वह उल्लास शब्द-शब्द से पफूटने लगता है, ''अशोक के पफूल ही नहीं, किसलय भी âदय को कुरेद रहे हैं। ं ं ं ं ं शाखाओं में लमिबत वायुलुलित किसलयों में ही मादकता है। मेरी नस-नस से आज करुण उल्लास की झंझा उतिथत हो रही है।
लेखक जब-तक कल्पना की उड़ान भरता है, वह कभी मानव की जीवन-शकित को तीव्र, दुर्दम एवं निर्मम धरा बताता है जो अपने अन्तर्गत सब कुछ बहाती हुर्इ भी विशु( और निर्मल रहती है, ''शु( है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धरा के सामान सबको हजम करने के बाद भी पवित्रा है। और कभी अशोक के पफूलों को देख वह उस युग के ऐश्वर्य एवं विलास के चित्रा उपसिथत करने लगता है जब रानियाँ या
पुषिपत अन्त:पुर की सुन्दरियाँ अपने पदाघात से अशोक को पुषिपत किया करती थीं और सपफटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर कन्दर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में पति के चरणों पर वसन्त-पुष्पों की अंजलि बिखेरती थीं।
पुराने संस्मरण और कथा-प्रसंग निबन्ध् को और भी रोचक बना देते हैं। गंभीर विचारों और शास्त्रा-ज्ञान के मरुस्थल में विचरण करने वाले पाठक उनका स्वागत वैसे ही करता है जैसे रेगिस्तान का प्यासा-थका यात्राी शाद्वल का। ''अशोक के पफूल में शिव द्वारा कामदेव के भस्म की कथा तथा उसके रत्नमय ध्नुष के टूटकर कोमल पफूलों में बदल जाने की कथा निबन्ध् को रोचक बनाती है।
मीठी चुटकियाँ लेने, व्यंग्य करने तथा हास्य के छीटों द्वारा पाठकों का मनोविनोद करने में द्विवेदी जी आचार्य शुक्ल से कम नहीं हैं। उन्हीं के समान द्विवेदी जी व्यंग्यपूर्ण शैली द्वारा अपने विचारपूर्ण एवं गंभीर विषय वाले निबन्धें को लोहे के चने नहीं बनने देते, पाठक के तनाव को दूर कर उसे सहज बना देते हैं। प्रस्तुत निबन्ध् म एक जगह उन विद्वानों पर व्यंग्य करते हैं जिन्हें सुन्दर वस्तुओं को आभागा समझने में आनन्द मिलता है और जो जिस-तिस के बारे में भविष्यवाणी करते रहते हैं, ''वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अनितम मुहुर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। निबन्ध् के अन्त में पणिडतों का मजाक उड़ाते हैं, ''पणिडतार्इ भी एक बोझ है - जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेजी से डुबाती है।
पाठक निबन्ध् पढ़ते समय जगह-जगह लेखक को अपने समीप पाता है, विशेषत: उन स्थलों पर जहाँ वह अपना जीवन-दर्शन और साहित्य-आदर्श सामने रखता है। जहाँ वह शोषण पर आधरित सामन्त सभ्यता, महाकाल, सृषिट में होने वाले परिवर्तन और दुर्दम जिजीविषा की बात करता है अथवा जहाँ विषम क्षणों में भी उदास न होने का परामर्श देता है, वहाँ लेखक का सानिèय और उसकी आत्मीयता पाठक को प्रभावित किये बिना नहीं रहती। वह पाठक के âदय में भावान्दोलन करता है, उसकी अनुभूतियों को व्यापक बनाता है और उसकी संवेदनाओं को तीक्ष्ण करता है। लेखक के स्वाध्ीन चिन्तन और मानसिक क्रीड़ा-विलास से अभिभूत पाठक कहीं भावमग्न हो उठता है तो कहीं चिन्तन-मनन के लिए बाèय। विचारों की गूढ़-गुमिपफत परम्परा, ''बदली है मनुष्य की मनोवृत्ति। यदि बदले बिना वह आगे बढ़ सकती तो शायद वह भी नहीं बदलती। और यदि वह न बदलती और व्यावसायिक संघर्ष आरम्भ हो जाता ं ं ं ं ं तो बड़ा बुरा होता। हम पिस जाते। यदि पाठक को सोचने के लिए अनुपे्ररित करती है तो लेखक अपनी बात को अधिक विश्वसनीय बनाने तथा पाठक से अधिक आत्मीयता स्थापित करने के लिए ''मेरा मन उदास हो जाता है, ''ना मेरा मन यह सब मानने को त्यार नहीं, मेरे मानने-न मानने से क्या होता है, ''यह मुझे प्राचीन युग की बात मालूम होती है जैसे वाक्यों का प्रयोग करता है। पाठक की सौन्दर्य-चेतना जगाने या उसे भावोच्छवसित करने के लिए वह विस्मयादिबोध्क चिहनों वाले पदाशों का वाक्यांशों का प्रयोग करता है -''कैसा झबरा-सा गुल्भ है! ''ध्न्य हो महाकाल! ''हाय, पंख कहां हैं।
सारांश यह है कि ''अशोक के पफूल ललित निबन्ध् का आदर्श प्रस्तुत करता है जिसमें एक ओर विचारों की गूढ़़-गुमिपफत परम्परा है, दूसरी ओर लेखक की सâदयता और संवेदनशीलता है और तीसरी ओर कल्पना की स्वच्छंद उड़ान और मानसिक क्रीड़ा-विलास है। उसमें लेखक का मानवतावादी दृषिटकोण और संस्Ñति-पे्रम स्पष्ट झलकता है। विचारों की गंभीरता, पाणिडत्य के प्रकर्ष और गहन चिन्तन के बावजूद भावात्मकता, काव्यात्मकता और कल्पनाशीलता इस निबन्ध् को लालित्यपूर्ण बना देते हैं।
भाषा-शैली
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी हिन्दी के सध्े हुए सारस्वत और शीर्षस्थ गधकार हैं। वह एक समर्थ शैलीकार के रूप में प्रतिषिठत हो चुके हैं। शैली वह तत्त्व है जो एक व्यकित के लेखन को दूसरे के लेखन से भिन्न बना देता है। वह लेखक के विचारों की वेशभूषा नहीं, शरीर में त्वचा की तरह अभिन्न हैं। प्रभावपूर्ण अभिव्यकित लेखक के व्यकितत्व से जुड़ी होती है। ष्ैजलसम पे जीम उंपदष् उकित द्विवेदीजी पर पूर्णत: चरितार्थ होती है। उनका पाणिडत्य, हंसोड और पफक्कड़ स्वभाव, उनकी सâदयता, उनकी भाषा पर पूर्ण अधिकार, उनका इतिहास-ज्ञान और जीवन-दर्शन, उनकी संस्Ñति-पे्रम-सर्वत्रा उनके लेखन में झांकता है।
द्विवेदी जी की धरणा है, ''यह लेखक की पराजय उस स्थान पर है जहां वह अपने प्रयोजन को प्रकट करने के लिए कम शब्दों का प्रयोग करके अस्पष्ट कर दे या अधिक शब्दों का प्रयोग करके निरर्थक। स्पष्ट है कि वह विषय को स्पष्ट करना अपना प्रमुख लक्ष्य मानते हैं और सरल, सहज, सजीव तथा स्वछंद शैली के पक्षध्र हैं। उनकी शैली विषयानुवर्तिनी है : विषय के अनुरूप उनकी भाषा-शैली भी अपना स्वरूप परिवर्तन करती चलती है। गहन-गंभीर विषयों पर लिखते समय उनकी शैली चिन्तनमूलक होती है और उस समय वह मौलिक विचार और दृषिटकोण प्रस्तुत करते हैंऋ भावुकता के प्रवाह में बहते समय वह अपने भाव विशेष शैली या तरंग शैली में व्यक्त करते हैं-कहीं उनके भाव और विचारधरा के रूप में अग्रसर होते हैं, कहीं रुक-रुक कर खंड-खंड में और कहीं ज्वार-भाटे की तरह उनके भावों का उतार-चढ़ाव परिलक्षित होता है। भावावेग के क्षणों में लिखे जाने के कारण निबन्ध् में सरसता और प्रवाह होता हैऋ पाठक उस भावप्रवाह में बहकर विषय के तदरूप और भावों में निमग्न हो जाता है। पफलत: ऐसे स्थल गधकाव्य का सा आनन्द देते हैं। ''ध्न्य हो महाकाल! तुमने कितनी बार मदन देवता का गर्व खण्डन किया है, ध्र्म राज के कारागार में क्रानित मचायी है, यमराज के निर्दक तारल्य को पी लिया है, विèााता के सर्वÑर्तत्व के अभिमान को चूर्ण किया है।
द्विवेदी जी चिन्तक होने के साथ-साथ अपने गवेषणा-कार्य के लिए भी विख्यात हैं। उनके विचारात्मक निबन्धें में तो गवेषणा शैली का प्रयोग हुआ ही है, व्यकितनिष्ठ निबन्धें में भी गवेषणा-तत्त्व मिल जाता है। अशोक के पफूल देख उनकी गवेषणा प्रवृति जाग्रत होती है और वह अशोक के पफूल को भारतीय साहित्य तथा इतिहास के विभिन्न कालों में जो सम्मान प्राप्त था उसकी छानबीन करने लगते हैं-
र्इसवी सन के आरम्भ के आसपास अशोक का शानदार पुष्प भारतीय ध्र्म, साहित्य और शिल्प में अदभुत महिमा के साथ आया था। इसी समय शताबिदयों से परिचित यक्षों और गंध्वो± ने भारतीय ध्र्मसाध्ना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही सुझाया है कि ''गध्र्व और ''कंदर्य वस्तुत: एक ही शब्द के दो भिन्न उच्चारण हैं।
विषय का समीचीन प्रतिपादन करने के लिए वह कहीं व्यास शैली अपनाते हैं तो कहीं समास शैली। समास शैली का प्रयोग कम हुआ है और जहाँ हुआ भी है वहाँ इस तरह कि पाठक को उनके वाक्यों की व्याख्या करने में अधिक कठिनार्इ नहीं होती। अधिकतर उन्होंने संतुलित व्यास शैली को अपनाया है, ''अशोक वृक्ष की पूजा इन्हीं गंध्वर्ौं और यक्षों की देन है। प्राचीन साहित्य में इस वृक्ष की पूजा के उत्सवों का बड़ा सरस वर्णन मिलता है। असल पूजा अशोक की नहीं, बलिक उसके अधिष्ठाता कन्दर्प-देवता की होती थी। इसे मदनोत्सव कहते थे।
द्विवेदी जी ने निगमन तथा आगमन दोनों ही प(तियों को अपनाया है। कहीं वह आरम्भ में विषय को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत कर पिफर उसकी व्याख्या-विवेचना करते हैं तो कहीं विषय का स्पष्ट विवेचन करने के उपरान्त अन्त में उसका सार या अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं।
पाठक के सम्मुख अपनी बात सरल, स्पष्ट और प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करने के उíेश्य से वह अनेक युकितयों का प्रयोग करते हैं-कभी बीच-बीच में अवान्तर कथाएँ प्रस्तुत करते हैं, जैसे वामनपुराण का हवाला देते हुए कामदेव के भस्म होने और उसके ध्नुष के टूटकर पफूलों में परिणित होने की कथा। कहीं पुराने संस्मरण और अनुभव बताकर पाठक के साथ आत्मीयता स्थापित करते हैं, 'पिफर भी मेरा मन इस पफूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे अन्तर्यामी ही जानते होंगे। कुछ थोड़ा-सा में भी अनुमान कर सका हूँ। उसे बताता हूँ।
उ(रणों का प्रयोग न केवल उनके पांडित्य और व्यापक अèययन का परिचायक है, उनकी अभिव्यंजना को भी सशक्त बनाता है। संस्Ñत रचनाओं से अनेक उ(रण दिये गये हैं, जेसे, किसलय-प्रसवो¿पि विलासिनां मदयिता दक्षिताश्रवणार्पित: ''या श्री सुन्दरीसाध्न तत्पराणां योग्श्च भोग्श्व करस्थ एव।
सूत्रा वाक्यों और सूकितयों का प्रयोग द्विवेदी जी के निबन्धें में हुआ तो है पर आचार्य शुक्ल की तुलना में अपेक्षाÑत कम और उनमें सरलता है, ''स्वर्गीय वस्तुएं ध्रती से मिले बिना मनोहर नहीं होतीं। अथवा ''सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
जहाँ-कहीं वह किसी दृश्य, स्थान या प्रसंग का वर्णन करने लगते हैं वहाँ चित्रामय शैली का प्रयोग उसे पाठक की कल्पना में साकार और सजीव बना देते हैं, ''नीचे हल्की रुनझुन और ऊपर लाल पफूलों का उल्लास! किसलयों और कुसुम-स्तवकों की मनोहर छाया के नीचे स्पफटिक के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुन्दरियाँ अबीर, कुम्कुम, चन्दन और पुष्प-संभार से पहले कन्दर्प-देवता की पूजा करती थीं और बाद में सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसन्त-पुष्पों की अंजलि बिखेर देती थी। इन पंकितयों को पढ़ते समय पाठक के सम्मुख मदनोत्सव का दृश्य साकार हो उठता है।
ऐतिहासिक तथ्यों अथवा जीवन और जगत के सत्यों का निरूपण करते समय वह विचरात्मक शैली का प्रयोग करते हैं। ऐसे स्थलों पर न कल्पना होती है, न भावोच्छवास और न कवित्व। ''भगवान बु( ने मार-विजय के बाद वैरागियों की पलटन खड़ी की थी। असल में ''मार मदन का ही नामान्तर है। कैसा मध्ुर और मोहक साहित्य उन्होंने दिया। पर न जाने, कब यज्ञों के वज्रपाणि नामक देवता इस वैराग्य-प्रवण ध्र्म में घुसे और बोध्ीसत्वों के शिरोमणि बन गये। पिफर वज्रयान का अपूर्व èार्ममार्ग प्रचलित हुआ। त्रिरत्नों को मदन देवता ने आसन पाया। वह एक अजीब आंध्ी थी।
अवसरानुकूल उन्होंने अलंÑत शैली का भी प्रयोग किया है, पर अलंÑत भाषा-शैली का प्रयोग चमत्कार के लिए नहीं स्वत: हो गया है। भावोच्छवास के समय द्विवेदी जी के लेखन में कवित्व की छटा स्वत: आ गयी है, ''उस प्रवेश में नववèाू के गृह-प्रवेश की भांति शोभा है, गरिमा है, पवित्राता है और सुकुमारता है। कहीं-कहीं उनके गध में ओजसिवता आ गयी है विशेषत: उन स्थलों पर जहाँ वह दूसरे के मत का खंडन और अपने मत का समर्थन करने लगते हैं, ''महाकाल के प्रत्येक पदाघात से ध्रती ध्सकेगी। उसके कुण्ठ नृत्य की प्रत्येक चारिका कुछ-न-कुछ लपेटकर ले जायेगी। सब बदलेगा, सब विÑत होगा-सब नवीन बनेगा। विपक्ष का खण्डन करने के लिए कभी वह प्रश्नों की झड़ी लगा देते हैं, ''क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी? सâदयता क्या लुप्त हो गयी थी? कविता क्या सो गयी थी? तो कभी मीठी चुटकी तथा व्यंग्य का आशय ले उसे ध्राशायी कर देते हैं, ''वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके जीवन के अनितम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृषिट इतनी दूर तक नहीं जाती। अथवा, ''वह अपने को पंडित समझता है। पंडितार्इ भी एक बोझ है-जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेजी से डूबती है।
भाषा के संबंध् में स्वयं द्विवेदी जी का मत है, ''हमें ऐसी भाषा बनानी है जिसके द्वारा हम अधिक से अधिक व्यकितयों को शारीरिक, मानसिक और आèयातिमक सुध-निवृत्ति का सन्देश दे सकें। वह सहज-सरल भाषा के पक्षध्र हैं। उनका कहना है, ''सहज भाषा का अर्थ है, सहज ही महान बना देनेवाली भाषा ं ं ं ं ं अनायास लब्ध् भाषा को मैं सहज नहीं कहता, तपस्या, त्याग और आत्मबलिदान के द्वारा सीखी हुर्इ भाषा सहज भाषा है। भाषा का यह आदर्श उनके निबन्धें में सहज ही दृषिटगत होता है। वह सर्वत्रा विषय और लेखक के व्यकितत्व के अनुरूप है तथा उसका लक्ष्य है सम्पे्रषण तथा अपनी बात को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त करना, उसमें प्रवाहमयता उत्पन्न करना। इसीलिए उनकी भाषा में कहीं तुलसी का पांडित्य है, कहीं सूर का माध्ुर्य तो कहीं कबीर का पफक्कड़पन।
द्विवेदी जी उच्च कोटि के शब्द-शास्त्राी एवं शब्द-शिल्पी हैं। यधपि उनकी रचनाओं में संस्Ñत-तत्सम शब्दावली की प्रधनता है पर कुछ अपवादों को छोड़कर उसमें जटिलता तथा किलष्टता नहीं आ पायी है। समस्त पदावली और शब्दाडम्बर कहीं-कहीं आ गया है पर अधिकांश निबन्धें में उनकी भाषा सहज, सरल तथा प्रवाहमय है, ''अशोक में पिफर पफूल आ गये हैं। इन छोटे-छोटे लाल-लाल पुष्पों के मनोहर स्तवकों में कैसा मोहन भाव है! बहुत सोच-समझ कर कन्दर्प देवता ने लाखों मनोहर पुष्पों को छोड़कर सिपर्फ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक यह अशोक ही है।
द्विवेदी जी मौजी लेखक हैं और भाषा के प्रति उनका दृषिटकोण संकीर्ण न होकर उदार है, ''मैं अन्य भाषाओं से शब्द लेने का बिल्कुल विरोध्ी नहीं हूँ। अत: भाषा-शैली में प्रवाह लाने के लिए उन्होंने उदर्ू, अंग्रेजी आदि के शब्दों का यथास्थान प्रयोग किया है वह शब्दों के कुशल पारखी हैं, उनकी आत्मा से परिचित हैं। वह जानते हैं कि अर्थ और èवनि के कारण कौन-सा शब्द कहाँ प्रयुक्त होना चाहिए। इसीलिए जहाँ एक ओर शानदार, गवाह, मस्तानी चाल, रर्इस, मौज, मस्ती, इज्जत आदि उदर्ू शब्दों का प्रयोग मिलता है वहाँ दूसरी ओर अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों जैसे पलटन, सोसायटी और पारिभाषिक शब्द भी अनायास आ गये हैं। पारिभाषिक शब्दों के हिन्दी पर्याय कोष्ठक में दे दिये गये हैं जैसे निवेटिव, कैरेक्टर (नकारात्मक चरित्रा), स्टैण्डर्ड (परिनिषिठत)।
स्थानीय और देशज शब्दों से भी उन्हें परहेज नहीं है बशर्ते उनसे भावों की अभिव्यकित में तथा विवेच्य विषयों को सरल और स्पष्ट बनाने में सहायता मिलती हो। कहीं-कहीं वे अभिव्यकित प्रवाह में अपने-आप आ गये हैं और लेखक की जिन्दादिली का परिचय देते हैं। भिड़ना, पिटना, झबरा, रटना आदि ऐसे ही शब्द हैं। यत्रा-तत्रा उन्होंने हिन्दी-उदर्ू मिश्रित शब्दावली का प्रयोग किया है-''इतने विद्रोह-भाव और इतनी चिनगारियाँ भरी थीं कि वे उन्हें संभाल नहीं सकती थीं।
भाषा में लय, संगीत, प्रवाह एवं वक्तृत्व-ओज उत्पन्न करने के लिए द्विवेदी जी कहीं शब्दों और वक्यांशों की आवृत्ति करते हैं, कहीं सहायक क्रियाओं का क्रम बदल देते हैं तो कहीं समानार्थक शब्दों का प्रयोग करते चले जाते हैं, ''उस प्रवेश में नववध्ू के गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्राता है और सुकुमारता है। अनेक स्थलों पर उनके वाक्यों में लयात्मक संगीत है, ''वह पफूलता था ं ं ं झूलता था ं ं ं सौगुना बढ़ा देता था, ं ं ं क्षोभ पैदा करता था, ं ं ं भ्रम पैदा करता था ं ं ं पफूट उठता था। èवन्यार्थ शब्दों के प्रयोग से भी कथन में शकित और दृढ़ता आ गर्इ है, ''मेरा मन उमड़-घुमड़ कर ं ं ं बरस जाना चाहता है। ''अथवा मशीन का रथ ध्धर््र चल पड़ता है। कुष्ठनृत्य, कुज्झटिकाच्छन्न आकाश भी ऐसे ही प्रयोग हैं। पूर्ण विराम, अधर््विराम, आश्चर्यबोध्क और प्रश्नार्थक चिहनों के सार्थक प्रयोग से भी उनके कथन में स्पष्टता और प्रभावोत्पादकता आ गर्इ है। द्विवेदीजी की वाक्य-रचना अपने सन्तुलन, सामंजस्य, सरलता-सâदयता और संक्षिप्तता के लिए विख्यात है। उन्होंने अधिकतर छोटे-छोटे और सरल वाक्यों का प्रयोग किया है। सरल और संक्षिप्त होने के साथ-साथ उनके वाक्य सुगठित, सुसम्ब( और सुनियोजित होते हैं, ''क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी? सâदयता क्या लुप्त हो गर्इ थी? कविता क्या सो गर्इ थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है, जले पर नमक तो यह कि एक तरंगायित पत्रावाले निपफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।
मुहावरों और लोकोकितयों का प्रयोग द्विवेदी जी के निबन्धें में कम ही हुआ है पर जहाँ भी हुआ है वहाँ वे बड़ी सटीक व्यंजना करते हैं। प्रस्तुत निबन्ध् में ''जले पर नमक, गला सुखा रहा हूँ, माया काटे कटती नहीं, आदि ऐसे ही प्रयोग हैं।
द्विवेदी जी ने कबीर के बारे में लिखा था, ''भाषा पर कबीर का जबर्दस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। यह बात स्वयं द्विवेदी जी पर भी चरितार्थ होती है। वह जब लेखनी चलाने लगते हैं तो भाषा की समस्त सि(ियाँ उनके आगे हाथ बाँध्कर खड़ी हो जाती हैं, सभी अनुगत भाव से उनकी भाषा-शैली का Üाृंगार करती चलती हैं। उनकी शैली में शालीनता और सरसता, उनके निबन्धें में बु(ित्तत्व और âदय-तत्त्व का मणिकांचन संयोग है। इसीलिए उनके निबन्धें की मानसिक दिवा-स्वप्न (प्दजमससमबजनंस तमअमअपमे) कहा जाना उपयुक्त ही है।
व्याख्या
(क) ''मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साध्न के पिछले हजारों वषो± पर बरस जाना चाहता है। क्या वह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज थी। ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह कि एक तरंगायिन वाले निपफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में अशोक कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके।
यह गधांश आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी द्वारा लिखित ललित निबन्ध् 'अशोक के पफूल से उ(ृत किया गया है। अशोक वृक्ष पर छोटे-छोटे लाल-लाल पफूलों के गुच्छों को देखकर लेखक का मन मुग्ध् हो उठा। वह उसके प्राचीन गौरव, संस्Ñत साहित्य, ध्र्म-ग्रन्थों और पौराणिक कथाओं में वर्णित-चर्चित सौन्दर्य का स्मरण कर तथा वर्ममान काल में उसके प्रति जन-उपेक्षा को देख उदास हो जाता है। अशोक के वृक्ष और उसके पुष्पों को जो आदर-सम्मान हमारे पूर्वजों ने दिया था उसका उल्लेख करते हुए वह लिखता है -
जिस प्रकार वायुमंडल में दबाव बढ़ने पर मेघ उमड़ते-घुमड़ते हैं और पिफर जब वायु उनके भार को नहीं वहन कर पाती तो वे बरसने लगते हैं उसी प्रकार लेखक का मन अशोक वृक्ष के प्रति भारतीय जन-मन की उपेक्षा एवं उदासीनता को अनुभव कर उदास हो उठता हैऋ उदासी बढ़ती जाती है और वह हजारों वर्ष पूर्व के प्राचीन ध्र्म, साहित्य, मिथक, कला आमोद-प्रमोद के उत्सवों और समारोहों की स्मृति में डूब जाता है, उन दिनों को याद करता है जब यहाँ के साहित्य और जीवन दोनों में आनन्द व्याप्त था-कवि, कलाकार और सौन्दर्य पे्रमी नागरिक सभी रस की साध्ना करते थे, कवि और नाटककार अपनी रचनाओं में सरस प्रसंगों का रसपूर्ण वर्णन कर तथा नागरिक दैनंदिन जीवन में कलाओं की उपासना कर अत्यन्त उल्लास और उमंग के साथ पर्व, उत्सव एवं समारोहों में भाग ले चारों ओर आनन्द एवं प्रपफुल्लता का वातावरण पैदा करते थे। तब जीवन में आनन्द ही आनन्द था। उस समय अशोक लोगों का प्रिय था। उसकी पूजा होती थी। उसके किसलयों और पफूलों से सित्रायाँ अपना Üाृंगार करती थीं। कवि और नाटककार अपनी रचनाओं में उसका वर्णन करते समय भावोच्छवसित हो उठते थे। पर आज लोग उसे भूल गये हैं। आज के भारत में न कहीं उसकी पूजा होती है और न साहित्यकार अपनी रचनाओं में उसे स्थान देेते हैं। इस उपेक्षा का क्या कारण है? क्या हमारी सौन्दर्य-चेतना जड़ हो गयी है? क्या हम सौन्दर्य को पहचानते हैं और उस पर मुग्ध् होने की शकित खो बैठे हैं? क्या कवियों की कल्पना-शकित सâदयता एवं कवित्व शकित लुप्त हो गयी है जिसके पफलस्वरूप वे अशोक को अपनी Ñतियों में स्मरण तक नहीं करते? लेखक कहता है कि ऐसा नहीं हुआ। न तो जनसाधरण की सौन्दर्य-चेतना सोयी है, न कवियों और नाटककार âदयीन हुए हैं और न उनकी काव्यशकित लुप्त हुर्इ है। सब कुछ पहले जैसा ही है। पर यह भी सत्य है कि लोग अशोक के प्रति वह मोहन भाव नहीं दिखाते जो हमारे पूर्वजों के मन में उसके प्रति था। और सबसे अधिक दु:खदायी और क्लेशकर बात तो यह है कि आज लोग असली अशोक को पहचानते तक नहीं, असली अशोक की पहचान ही वह खो बैठे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि सारे उत्तर भारत के लोग एक ऐसे पेड़ को अशोक कहने लगे हैं जिसमें पफूल तक नहीं आते। इससे बढ़कर उस महान वृक्ष का अपमान क्या होगा? किसी अनधिकारी को अèािकार देना, किसी कुपात्रा की प्रशंसा करना, किसी मूर्ख को विद्वान कहना अनुचित ही नहीं अधिकारी, सुपात्रा और विद्वान का अपमान करना है। इसी प्रकार ऐसे वृक्ष को जिसमें अशोक के अन्य गुण तो क्या पफूल तक नहीं आते, अशोक कहना उसका घोर अपमान है।
टिप्पणी
1. लेखक के भारतीय साहित्य और संस्Ñति के अपार ज्ञान का पता चलता है।
2. पहले वाक्य में रूपक अलंकार हैं
3. तरंग-शैली का प्रयोग।
4. प्रश्नवाचक वाक्यों से लेखक के भावावेश और तड़प का पता चलता है।
5. ''ना का प्रयोग शैली में सहजता तथा आत्मीयता लाता है।
6. ''निपफूले-निपूते के साम्य पर बताया गया शब्द है जिससे आक्रोश और क्षोभ व्यक्त होता है।
7. जले पर नमक - मुहावरा है।
(ख) ''ध्न्य हो महाकाल ! तुमने कितनी बार मदनदेवता का गर्व-गण्डन किया है, ध्र्मराज के कारागार में क्रांति मचायी है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया है, विधता के सर्वकतर्ृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है। आज हमारे भीतर जो मोह है, संस्Ñति और कला के नाम पर जो आशकित है, ध्र्माचार और सत्य निष्ठा के नाम पर जडि़मा है, उसमें से कितना भाग तुम्हारे कुण्ठनृत्य से èवस्त हो जाएगा, कौन जानता है। मनुष्य की जीवन-छाप पिफर भी अपनी मस्तानी चाल से चलती जाएगी।
ये पंकितयाँ सुप्रसि( निबन्ध् ''अशोक के पफूल से उदध्ृत की गर्इ है जिसके लेखक हैं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी। अशोक वृक्ष के प्रति लोगों की उदासीनता के कारणों के विषय में सोचते हुए लेखक को लगता है कि उसके प्रति अवज्ञा का एक कारण यह है कि सामन्त-सभ्यता से जुड़ा था और उसके ßास के साथ उसका गौरव भी लुप्त हो गया। राष्ट्रों, संस्Ñतियों और सभ्यताओं के उत्थान-पतन के विषय में सोचते-सोचते उसे कुछ निष्कर्ष हाथ लगते हैं- मानव जाति की धरा अखंड है क्योंकि मानव की जिजीविषा दुर्दम हैऋ संघर्ष से शकित प्राप्त होती हैऋ कोर्इ वस्तु शु( नहीं है, सबमें मिलावट हैऋ परिवर्तन-चक्र की इसी शकित को समझाते हुए लेखक कहता है-
काल की शकित अपरिमित है। वह अजेय है। परिवर्तन का चक्र रोके नहीं रुकता। वह अबाध् गति से आगे बढ़ता ही जाता है, संसार की कोर्इ शकित उसे नहीं रोक सकती। कामदेव रूप, सौन्दर्य और पे्रम का देवता माना जाता है परन्तु यमराज इनमें से किसी को नहीं बख्शता, सबका घमंड चूर-चूर कर देता है- रूपवतों का रूप-सौन्दर्य ढल जाता है, पे्रम भी पफीका पड़कर लुप्त हो जाता हैऋ ध्र्मराज सत्य, ध्र्म और न्याय के देवता हैं, पर काल इनको भी नहीं बख्शताऋ इतिहास में सत्य पर असत्य, ध्र्म पर अध्र्म एवं न्याय पर अन्याय हावी होते अक्सर देखा गया हैऋ यमराज मृत्यु का देवता है पर भारतीय ध्र्म और दर्शन आत्मा को अमर मानते हैं- जिसकी मृत्यु होती है, वह पुन: जन्म लेता है- ऐसा हमारा विश्वास है। अत: यमराज भी परिवर्तन के आगे झुकता है। ब्रह्राा या विधता को सृषिट का बनाने वाला बताया जाता हैऋ उन्हें शकितमान और सर्वÑतर्ृत्ववान कहा जाता है पर संसार की कोर्इ वस्तु, कोर्इ प्राणी अनश्वर नहीं है, सब नाशवान और क्षणभंगुर हैं। अत: ब्रह्रा का अभिमान भी मिथ्या है। ऐसी सिथति में मनुष्य का मोह, आसकित, क्षणभंगुर पदाथो± के प्रति आकर्षण भोग-विलास में प्रवृत्ति सब व्यर्थ है। संस्Ñति चाहे वह कितनी ही प्राचीन, समृ( और गौरवशाली क्यों न हो - बदलेगीऋ कलाओं की शैली और शिल्प में परिवर्तन होगाऋ ध्र्म कितना ही महान उदात्त और सातिवक विचारों से सम्पन्न क्यों न हो, विÑत होता। कोर्इ पूरी तरह बदलेगा, कोर्इ आंशिक रूप में। अत: संसार परिवर्तनशील है और उसमें परिवर्तन होंगे। हाँ, परिवर्तन की गति कभी ध्ीमी होगी और कभी वेगवती। केवल एक चीज अजर है, अमर है, शाश्वत है। वह है मानव की जीने की इच्छा और इसी कारण इतिहास में अनेक उथल-पुथल होने के बावजूद प्राÑतिक और मानव की स्वयं पैदा की गर्इ आपदाओं के बावजूद मानवजाति अब भी जीवित है और विकास के मार्ग पर चल रही है।
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