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हिंदी साहित्य में डिंगल ,मेवाड़ी,पिंगल भाषा, राजस्थानी भाषा का रूप हैं

डिंगल-पिंगल भाषा   

मेवाड़ी-मारवाड़ी भाषा   


डिंगल भाषा

राजस्थानी की प्रमुख बोली 'मारवाड़ी' का यह साहित्यिक रूप है।
कुछ लोग डिंगल को मारवाड़ी से भिन्न चारणों की एक अलग भाषा बतलाते हैं, किंतु ऐसा मानना निराधार है।
डिंगल को भाटभाषा भी कहा गया है।
मारवाड़ी के साहित्यिक रूप का नाम डिंगल क्यों पड़ा, इस प्रश्न पर बहुत मत- वैभिन्न्य है -

1. डॉ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार - 'पिंगल के सादृश्य पर यह एक गढ़ा हुआ शब्द है।'

2. तेस्सितोरी के अनुसार डिंगल का अर्थ है 'अनियमित' या 'गँवारू'। साहित्य के क्षेत्र में ब्रज की तुलना में गँवारू होने का कारण यह नाम पड़ा।
3. हरप्रसाद शास्त्री 'डगर' से 'डिंगल' बनाते हैं। 'डगर' का अर्थ है 'जांगल देश की भाषा'।

4. गजराज ओझा के अनुसार 'ड' - प्रधान भाषा होने से 'पिंगल' के सादृश्य पर 'प' के स्थान पर 'ड' रखकर 'डिंगल' शब्द टवर्ग या ड-प्रधान भाषा के लिए बनाया गया।

5. पुरुषोत्तमदास स्वामी के अनुसार डिम + गल से डिंगल बना है। 'डिम' अर्थात् डमरू की ध्वनि या रणचण्डी की ध्वनि। गल = गला या ध्वनि, अर्थात् वीर रस की ध्वनि वाली भाषा।

6. किशोर सिंह के अनुसार 'डी' धातु का अर्थ है 'उड़ाना'। ऊँचे स्वर से पढ़े जाने से, डिंगल उड़ने वाली भाषा है।

7. उदयराज के अनुसार डग= पाँखें, +ल= लिये हुए; या डग= लम्बा क़दम या तेज़ चाल+ ल = लिये हुए। अर्थात् 'डिंगल' स्वतंत्र या तेज़ चलने वाली भाषा है।

8. जगदीश सिंह गहलौत के अनुसार डींग+ गठ्ठ (अर्थात् ऊँची बोली) से डिंगल है।

9. बद्रीप्रसाद के अनुसार डिंगीय डीघी (=ऊँची) + गठ्ठ (=बात, स्वर) से डिंगल है।
10. मोतीलाल मेनारिया के अनुसार 'डिंगल' बना है।
11. गणपतिचन्द्र के अनुसार राजस्थान के किसी छोटे भाग का नाम प्राचीनकाल में 'डगल' था। उसी आधार पर वहाँ की भाषा 'डिंगल' कहलाई।

12. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अनुसार डिंगल यादृच्छात्मक अनुकरण शब्द है।

13. नरोत्तमदास स्वामी के अनुसार कुशललाल रचित पिंगल 'शिरोमणि' में उडिंगल नागराज का एक छन्द शास्त्रकार के रूप में उल्लेख मिलता है। जैसे 'पिंगल' से पिंगल' का नाम पड़ा है, उसी प्रकार 'उडिंगल' से 'उडिंगल' ही बाद में 'डिंगल' हो गया।

14. डॉ. सुकुमार सेन तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार संस्कृत शब्द डिंगर (=गँवारू, निम्न) से इसका सम्बन्ध है अर्थात् मूलत: डिंगल गँवारू लोगों की भाषा थी। वस्तुत: इनमें कोई भी मत युक्तियुक्त नहीं है।

15. कुछ सम्भावना नरोत्तम स्वामी के मत की ही हो सकती है। कुछ ग्रंथों में डिंगल का पुराना नाम 'उडिंगल' मिलता भी है। डिंगल नाम बहुत पुराना नहीं है। इसका प्रथम प्रयोग डिंगल के प्रसिद्ध कवि बाँकीदास की पुस्तक 'कुकवि बत्तीसी' [2] में मिलता है।

साहित्य में डिंगल का प्रयोग 

हिंदी साहित्य के आदिकालीन साहित्य के रासों गर्न्थो आदि में डिंगल भाषा के दर्शन करने को मिल जाते हैं। डॉ. तेस्सितोरी ने 'डिंगल' के प्राचीन और अर्वाचीन दो भेद किए हैं। डिंगल के प्रसिद्ध कवि नरपति नाल्ह, ईसरदास, पृथ्वीराज, करणीदीन, बाँकीदास, सरलादास तथा बालाबख़्श आदि हैं।

मेवाड़ी बोली

मेवाड़ी बोली राजस्थान के दक्षिणी भाग में बोली जाने वाली स्थानीय बोली है। यह बोली दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर, भीलवाड़ा और चित्तौड़गढ़ ज़िलों में मुख्य रूप से बोली जाती है। मेवाड़ी बोली में मारवाड़ी के अनेक शब्दों का प्रयोग होता है। केवल 'ए' और 'औ' की ध्वनि के शब्द अधिक प्रयुक्त होते हैं।

सामान्यत: राजस्थानी भाषा का नाम राज्य के नाम के कारण पड़ा है। कभी-कभी 'राजस्थानी' इसकी मुख्य बोली के नाम पर भी पुकारा जाता है या जो क्षेत्र बोलने के ढंग का प्रयोग करते हैं, उदाहरण के लिए, मारवाड़ी, मेरवाड़ी आदि। राजस्थानी न तो कोई भाषा है, जो कि किसी समूह के लोगों के द्वारा बोली जाती हो न ही विभिन्न बोलियों का एक संपीड़न है। *भाषा-विज्ञान के आधार पर इसे इंडो-आर्यन के रूप में विभक्त किया जा सकता है।
मेवाड़ी वह भाषा है, जो कि राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है। यह नाम इस क्षेत्र के नाम के कारण लिया गया है।
राजस्थान की द्वितीय व्यापक भाषा मेवाड़ी है व यह राजस्थानी संस्कृति में एक महत्त्वपूर्ण भाग अदा करती है।
मेवाड़ी भाषा को मारवाड़ी की तुलना में एक पृथक् भाषा के रूप में वर्णित किया गया है।
अनेक राजकीय व गैर-राजकीय शोध संस्थान यहाँ पर देखे जा सकते हैं। साथ ही साथ मेवाड़ी में अनेक कवि व लेखक और पर्याप्त मात्रा में साहित्य की उपलब्धता देखी जा सकती है।

मारवाड़ी बोली

(मारवाड़ी भाषा से पुनर्निर्देशित)

मारवाडी बोली राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है। मिश्रित रूप से यह पूर्व में अजमेर, किसनगढ़, मेवाड़ तक, दक्षिण में सिरोही, रानीवाड़ा तक, पश्चिम में जैसलमेर, शाहगढ़ तक तथा उत्तर में बीकानेर, गंगानगर तक तथा जयपुर के उत्तरी भाग में पिलानी तक बोली जाती है। यह शुद्ध रूप से जोधपुर क्षेत्र की बोली है। बाड़मेर, पाली, नागौर और जालौर ज़िलों में इस बोली का व्यापक प्रभाव है। मारवाड़ी बोली की कई उप-बोलियाँ भी हैं, जिनमें ठटकी, थाली, बीकानेरी, बांगड़ी, शेखावटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गौड़वाडी, नागौरी, देवड़ावाटी आदि प्रमुख हैं। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं। डिंगल साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न बोली है।

डॉ. ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 60 लाख बतलायी थी। सन् 1951 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 46 लाख (45,14,737) थी। इसके पूर्व में जयपुरी और हाड़ौती बोलियाँ हैं। दक्षिण-पूर्व में मालवी, दक्षिण-पश्चिम में गुजराती भाषा, पश्चिम में उत्तर में लहँदा तथा उत्तर-पूर्व में पंजाबी भाषा और हरियाणवी बोली जाती है। सीमावर्ती क्षेत्रों में यह सम्बद्ध भाषा एवं बोलियों में इतनी अधिक प्रभावित है कि इसकी अनेक उपबोलियाँ विकसित हो गयी हैं। जैसे पूर्वी क्षेत्र में ढूँढ़ाड़ी, गोडावती, मेवाड़ी, दक्षिण क्षेत्र में सिरोही, देवड़ावाटी, पश्चिमी क्षेत्र में थाली और टटकी तथा उत्तरी क्षेत्र में बीकानेरी, शेखावटी और बाँगड़ी हैं। साहित्य की दृष्टि से मारवाड़ी सम्पन्न है। इसके साहित्यिक रूप डिंगल का प्रयोग कविता में होता रहा है। अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के निमित्त चारण, भाटों ने डिंगल में हज़ारों ग्रंथों की रचना की है। भाषा अध्ययन की दृष्टि से भी डिंगल महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि शौरसेनी, प्राकृत और आधुनिक हिन्दी के विकास को स्पष्ट करने में यह महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करती है।

डिंगल भाष की विशेषताएँ

ध्वनि विशिष्टताएँ
ऐ और-औ का उच्चारण तत्सम शब्दों में - अइ और - अउ जैसा होता है।
अनेक स्थानों च् और छ् प्राय: स् उच्चारित मिलता है; जैसे
चक्की सक्की
छाछ सास

ल् अनेक स्थानों पर ळ उच्चारित मिलते हैं; जैसे-
बाल बाळ
जल जळ

ह् के लोप की प्रवृत्ति सामान्य है; जैसे
कह्यो कयो
रहणो रैणो

दो विशिष्ट ध्वनियाँ इसमें मिलती हैं- ध् और स् प्रथम उच्चारण की दृष्टि से द्-व् के मध्य उच्चारित ध्वनि है दूसरी स्-ह् के मध्य उच्चारित होती है। दोनों में श्वांस भीतर की और खींचना पड़ता है।
उदाहरण-धावो जास्यों

परसर्ग- निम्नलिखित परसर्गों का प्रयोग होता है-
कर्म - सम्प्रदान - नै, ने, कने, रै
करण - सम्प्रदान - सूँ, ऊँ
सम्बन्ध - रौ, नो, को,
अधिकरण - में, मैं, माहै, माई
दो या अधिक वस्तुओं में तुलना-निर्देशक के लिए अतिरिक्त करताँ का प्रयोग भी किया जाता है; जैसे-
मोअन करताँ सोअन भलो रो है।

(मोहन की अपेक्षा सोहन भला है)

सर्वनामों में अत्यधिक विविंधता है।
'कौन' के लिए कुण, कण का प्रयोग किया जाता है।

क्रिया पद
मारवाड़ी में भविष्य काल की क्रिया में धातु के साथ - हूँ, हाँ, हो, ही प्रत्यक्ष जोड़ते हैं।
उ.पुरुष देख + हूँ = देखहूँ देख + हाँ = देखहाँ
म. पुरुष देख + ही = देखड़ी देख + हो = देखहो
अ.पुरुष देख + ही = देखही देख + ही = देखही

वर्तमान दंत के साथ रहणो के योग से नकारात्मक क्रिया का बोध होता है।
गातो रहणो (न गाना)

संयुक्त क्रिया का निर्माण करते समय अतिरिक्त क्रिया के पूर्व-रो (री) अथवा परो जोड़ देते हैं;
जैसे - री दीवी (दे दी)

पिंगल भाषा

पिंगल एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पिंगल (बहुविकल्पी)
पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपकरणों को ग्रहण करते हुआ था। इस भाषा में चारण परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई। राजस्थान के अनेक चारण कवियों ने इस नाम का उल्लेख किया है।

उद्भव
डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवह' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी। डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया। उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी हैं। पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें चारण- परंपरा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।

'पिंगल' शब्द

'पिंगल' शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और चारणों में प्रचलित ब्रजी की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है। पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है। सूरजमल ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर के बीच माना है। इस प्रकार पीछे राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा। यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया। गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में भाषा पिंगल दी कथन मिलता है। इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है।

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