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मैथिलीशरण गुप्त- दोनों ओर प्रेम पलता है की व्याख्या maithilisharan gupt /Dono or prem palata h ki vyakhya

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      मैथिलीशरण गुप्त

दोनों ओर प्रेम पलता है कविता की व्याख्या 


1
दीपक और पतंगे के प्रतीक के माध्यम से उर्मिला कहती है- है सखि सच्चा प्रेम तो दोनों ओर समान भाव से पलता है, बढ़ता है। जैसे यदि पतंगा दीपक के प्रकाश में जलता है, तो दीपक भी निरन्तर जलता ही रहता है, दीपक की लौ उसकी अंतर्ज्वाला ही तो है। दीपक स्वयं अपनी ज्वाला में धीरे धीरे जलता रहता है, परन्तु वह पतंगे को जलने से रोकना चाहता है। पतंगा दीपक की ज्वाला से आकर्षित होकर रूप लिप्सा मे अपने को मिटा देने की इच्छा से उसके समीप जाता है। भावों की विह्वलता मे यह भी नही सोचता की यह ज्वाला उसे नष्ट कर देगी। दूसरी ओर दीपक प्रेम की अग्नि में जलते हुए भी अपने प्रेमी को उस जलन से बचाना है। वह सिर हिला हिलाकर (दीपक की लौ  हिलती है, तो मानो दीपक सिर हिलाकर मना करता है) पतंगे को अपने समीप आने से मना करता है, परन्तु पतंगा कब मानता है? दीपक की ज्वाला में उत्सर्ग होकर (जलकर) ही रहता है। इस प्रकार दीपक और पतंगें दोनो मे ही भावो की विह्वलता दर्शनीय है। प्रेम में उत्सर्ग होकर पतंगा अपनी विह्वलता का परिचय देता है और उसे रोकने का प्रयास करने पर भी उसको न रोक सकने की विवशता और उसका उत्सर्ग (आत्मदाह) देखकर भी मंद मंद जलते रहना दीपक की अंतर्दाहकता को व्यक्त करता है। इस प्रकार प्रेम दोनो ओर पलता है, एक और नहीं।

उर्मिला कहती है पतंगा यदि दीपक का संकेत समझकर स्वयं को उसकी लौ से दूर कर भी लेता तो यह कष्ट भी उसके लिए मरण-तुल्य ही होगा। प्रणय भाव को त्याग कर जीवित रहना प्रेमी हृदय के लिए अत्यंत कष्टकारी ही होगा। अतः यदि वह जलेगा नहीं तो पश्चाताप (वियोग) की  आग में जीवनपर्यन्त झुलसता रहेगा, क्योंकि प्रिय से दूर, प्रणय त्यागकर जीवित रहना किसी भी प्रकार से उचित नही माना जा सकता,

दीपक की लौ में प्राणोंत्सर्ग  करना असफलता नहीं है बल्कि जीवित रहना ही उसके जीवन की असफलता होगी, क्योंकि प्रेम दोनो ओर समान भाव से पलता है।
कहता है पतंग..... वश चलता है।
उर्मिला कहती है दीपक के रोकने पर पतंगा नहीं रुकता है अपितु दिन होकर कहता है - है प्रिय दीपक ! तुम महान् हो जो अपनी ज्वाला में चुपचाप जल रहे हो, मै तुम्हारी तुलना मे अत्यंत लघु हूँ। मै इस प्रकार धीरे धीरे जलकर अपना प्रकाश दूसरों में नही बाँट सकता, परन्तु मरण भी मेरे वश में नहीं है अर्थात मै मरकर तो इस प्रेम की गरिमा को बढ़ा सकता हूँ। मरण की शरण किसी को छल नहीं सकती। अर्थात जब मै मृत्यु की शरण में चला जाऊँगा, तो मुझे जलकर मर मिटने का यश मिल जायेगा और मेरा तुम्हारे प्रति प्रेम अमर बन जायेगा।
अंत में उर्मिला दीपक और पतंगे के जलने की तुलना करते हुए कहती है - है सखि! दीपक के जलने में तो जीवन की लालिमा है, वह जलता पर उसके प्रकाश में जग आलोकित होता है। वह जलकर जग का कल्याण करता है, परन्तु पतंगे की भाग्य लिपि में तो जीवन की लालिमा नही, दुर्भाग्य की कालिमा है। उसका जलना भी व्यर्थ ही जाता है। वह प्रेम में उत्सर्ग हो जाता है और इससे किसी का कोई हिट भी नही होता। पर क्या करे। भाग्य पर किसका वश चलता है? अर्थात व्यक्ति भाग्य के समक्ष विवश है।

कविता का भाव यह है की उर्मिला स्वयं को पतंगा और लक्ष्मण को दीपक के रूप कल्पित कर अपने प्रेम की व्यंजना प्रस्तुत करती है:-वह दीपक को महान कहती है, क्योकि उसके जलने की प्रक्रिया में कष्ट अधिक है. पतंग तो जलकर भस्म हो जाता है पर दीपक सारी जलन हृदय में समेटे जलता ही रहता है। दूसरी बात यह है की दीपक जलकर दूसरों को प्रकाश देता है। वह परहित में जलता है जबकि पतंगा अपने लिए जलता है। उर्मिला अपने दु:ख से दुखी है। परन्तु लक्ष्मण लोकहित में कष्ट उठाने के लिए वन गये है। अतः उनका त्याग महान है।
जगती...खलता है।

प्रस्तुत पंक्तियों में लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला प्रेम के विषय में विस्तृत चर्चा कर रही है। उनका कहना है कि संसार के प्राणियों का स्वभाव बनियों जैसा है दिखाई पड़ता है है। उनकी वृति वनिगवृति हो गयी है अर्थात वे अपना सम्बन्ध उसी व्यक्ति से रखना चाहते है जिनसे उनका कोई स्वार्थ निकलता है उससे अच्छे सम्बन्ध होते है, परन्तु जिससे किसी प्रकार के स्वार्थ सिद्धि की उम्मीद नही होती है उसे कोई नही पूछता है।
मनुष्य का कार्य नही, बल्कि उस कार्य का परिणाम मूल्यांकित किया जाता है। यह बात बहुत ही खलने वाली है। जैसे यदि कोई व्यक्ति खूब श्रम एवम् पूर्ण मनोयोगपूवर्क किसी कार्य को सम्पादित करता है और संयोग से उसे सफलता प्राप्त नहीं होती है, तो लोग उसके श्रम-क्रम को पूर्णतः झुठला देते है और उसे तनिक भी महत्व नहीं मिलता है। इसके ठीक विपरीत यदि कोई भाग्य से बहुत बड़ी उपलब्धि हासिल कर लेता है, तो वह सहज ही महान व्यक्ति घोषित हो जाता है। अतः हमेशा परिणाम को ही मूल्यांकन का आधार नहीं होना चाहिए, श्रम पर भी ध्यान देना चाहिए। ऐसे ही प्रेम भी है प्रेम एक तरफ नही पलता है अपितु दोनों ओर पलता है।





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