पगडण्डी की राह आज तक
निःसंकोच कंठ तुम और खोल
सारा खेल तो तुम देख चुकी है
किसकी थाली में रोटी रूखी है
हालात किसकी है डांवाडोल ।
दस दस ईंटों की बोझ वह ढोती
आधी रोटी खा खाकर वह सोती
लिया जीवन है तुमने जो तोल ।
पगडण्डी की राह आज तक
नहीं उठी आवाज आज तक
समय पर वोट मांगा अनमोल ।
बूढ़ा हो चला बरगद गाँव का
दर्द जाता नहीं थका पाँव का
विवाह में बजता चमरूआ ढोल।
विद्या शंकर विद्यार्थी
No comments:
Post a Comment