"किताबों की शव यात्रा" लघुकथा
कई वर्षों के बाद आज मैं अपने शहर आई हुई थी।इस शहर में मेँ जन्मी पली बढ़ी और विवाह के पश्चात दूसरे शहर चली गई। आज अपने शहर में आकर मुझे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था।
मुझे रिसर्च के लिए कुछ किताबों की आवश्यकता थी अतः आज मैं सदर बाजार आई हुई थी। जब हम लोग स्कूल -कॉलेज में पढ़ते थे तब यहाँ किताबों की बहुत प्रसिद्व दुकानें थीं । अजंता बुक डिपो, श्री राम बुक डिपो, कुतुबूद्दीन एंड संस् आदि। आश्चर्य आज इसी लाइन में खड़ी हुई मेँ उन दुकानों को ढूंढ रही थी।
मैनें सोचा कहीं मेँ रास्ता तो नहीं भूल गई हूँ ,पर ऐसा कैसे हो सकता है। मेँ कॉलेज पढ़ते समय इन किताब दुकानों का महीने में चार बार जरूर चक्कर लगाया करती थी । परीक्षा के रिजल्ट के आते ही उस ज़माने में हम लोग अपनी जिल्द लगी पुरानी किताबों के जिल्द उतार कर उसे इन बुक डिपो वालों को पौने दाम पर बेचकर आधी दाम में दूसरी किताबें खरीद लेते थे।
मुझे कॉमिक्स पढ़ना बेहद प्रिय था। मेँ श्री राम बुक डिपो में बैठकर ही कॉमिक्स की किताबें पढ़ लेती थी। श्री राम बुक डिपो के मालिक जिन्हें मेँ दादा जी संबोधित करती थी ,वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। वे कभी -कभी मुझे मुफ्त में कोई कॉमिक्स की किताब भी दे देते थे तब मुझे इतनी ख़ुशी होती थी जैसे मुझे कोई कारु का खजाना मिल गया हो। आज मैं उस स्थान पर भौंचक सी खड़ी थी।
श्री राम बुक डिपो के स्थान पर शीशे के दरवाजे से चमचमाती ब्यूटीपार्लर की दुकान थी। मेँ ब्यूटीपार्लर के दरवाजे पर खड़ी हुई अंदर देखने लगी ।तभी एक लड़की ने पूछा, "हेलो मेम, आपको सर्विस चाहिए?"
मैंने नहीं में अपना सर हिला दिया। मैंने उससे पूछा , यहां किताबो की दुकान हुआ करती थी ।वो कहाँ है?
उस लड़की ने कहा ," क्या पता कभी रही होगी। मेँ नहीं जानती।"
अभी कुछ आगे जाकर कंप्यूटर सेंटर था ।मैं वहां जाकर एक व्यक्ति से पूछा-भइया, यहां बहुत सारी लाइन से किताबो की दुकान हुआ करती थी । वो अब कहाँ चली गईं?
मेरे इस प्रश्न पर उसने मुझे अचरज भरी नजरों से देखा और कहा,"क्या मेडम जी ,आप किस ज़माने की बातें कर रही हैं? बरसों हो गए वो किताबों की सारी दुकानें बंद हो गईं।उनके स्थान पर ये सारी नई दुकानें खुल गईं हैं।अब किताबों की दुकान का क्या औचित्य ? अब किताबें कौन पढता है? आज किताबे गूगल इंटरनेट पर मौजूद है। मेडम अब सब हाईटेक हो चुका है।"
यह सुनकर मैं चुपचाप वहाँ से वापस मुड़ गई। तभी मुझे श्री राम बुक डिपो वाले दादा जी दिख गये। मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मेँ लगभग दौड़ती हुई उनके पास पहुँच गई। उनकी कमर अब झुक गई थी अधपके बाल अब सफेद रेशम की तरह चमक रहे थे। उनके झुर्रिदार चेहरे में मायूसी झलक रही थी। वे मुझे देखकर पहचानने की कोशिश करने लगे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने मुझे पहचाना।
उन्होंने पूछा ," काफी बरसों बाद आई हो बिटिया , सब ठीक है?
मैनें कहा, हाँ, दादा जी ,आप को देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। यहां की सारी किताबो की दुकान बंद हो गई ।मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ। आपकी दुकान का क्या हुआ?
मेरे इस प्रश्न पर उनका चेहरा विषादपूर्ण हो गया ।उन्होंने निराशा भरे स्वर से कहा," दुकान तो मैंने बेच दी बिटिया, वो क्या है पहले लोगो के पास समय था वो पढ़ते थे ।किताबे खरीदते थे पर जब से मोबाईल, कंप्यूटर इंटरनेट आ गया है ।किताबों का कारोबार पर असर होने लगा है। पहले किताब दुकान से हमारा परिवार पलता था ।खर्चा पानी निकल जाता था परंतु आज तो भूखों मरने की नौबत आ गई फिर क्या है आज से पांच साल पहले मैंने दुकान बेच दी। "
मैंने पूछा। किताबों का क्या किया?
उन्होंने कहा, "क्या करते रद्दी में बेच दिया"।
यह उत्तर सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ।
मुझे लगा कि मैं किताबों की शव यात्रा में शामिल होने आई हूँ।
डॉ. शैल चन्द्रा
रावण भाठा, नगरी
जिला- धमतरी
छत्तीसगढ़
परिचय
डॉ. शैल चन्द्रा
जन्म- 9.10.66
शिक्षा- एम्.ए. बी. एड.एम्. फिल. पी. एच. डी. (हिंदी)
उपलब्धियां- अब तक पांच किताबें प्रकाशित।1. इक्कीसवीं सदी में भी।(काव्य संग्रह)
2. विडम्बना(लघुकथा संग्रह)
3.जूनून तथा अन्य कहानियां( कहानी संग्रह)
4. गुड़ी ह अब सुन्ना होगे( छत्तीसगढ़ी लघुकथा संग्रह)
5.घोंसला और घर और अन्य लघुकथाएं।
6.पापा बिज़ी हैं(लघुकथा संग्रह)
घर और घोंसला को कादम्बरी सम्मान।
No comments:
Post a Comment