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Shayar dushyant kumar जन मानस के शायर दुष्यंत कुमार


जन मानस के शायर दुष्यंत कुमार

Kavi shayar Dushyant kumar 


दुष्यन्त कुमार की ग़ज़लें पढ़कर ऐसा लगता है कि वो हिन्दी से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तान की ग़ज़लें है। जिनमें उस समय के आम आदमी की पीड़ा, संघर्ष, एवं परिस्थितियों से जूझते रहने का चित्रण किया है। अपने अशआर में बारूद भरकर दुष्यन्त कुमार ने शायरी के एक ऐसे स्वरूप को दिखाया जिससे हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल का एक नया रूप प्रकट हुआ।ये तब का दौर था जब समाज में अज्ञेय जी और मुक्तिबोध का सर्वव्यापी असर था और दूसरी तरफ ग़ज़ल जो की मूलतः फारसी की एक विधा है उसके बारे में लोगो के मन में कुछ भ्रम और कुँच संकोच थे। एक तरफ जहाँ लोगों को अज्ञेय और मुक्तिबोध से आगे या अलग लेजाना मुमकिन नही दिख रहता वही ग़ज़ल के लिए लोगों की प्रतिक्रिया बदलना भी उतना ही कठिन महसूस हो रहा था। ऐसे में एक इन्सान आता है जो ना सिर्फ सरल है बल्कि निर्भीक है, जो बहादुर है, जिसमे परिवर्तन लेन का जूनून है, हिम्मत है और जो समाज में ना सिर्फ बदलाव चाहता है बल्कि बदलाव लेन की जद्दोजहद भी करता है।

“कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैनें पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है”

महान कवि दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितंबर 1933 को हुआ।दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर 1931 को बिजनौर जिले के एक गांव राजपुर नवादा में हुआ था पर किन्हीं कारणों से सरकारी अभिलेखों में उनकी जन्म तिथि 1 सितंबर 1933 दर्ज करा दी गई। ग़ज़ल को जनमानस की भाषा में अर्थात बिलकुल सरल भाषा में लिखने और फिर उसे घर घर तक पहुँचाने का श्रेय दुष्यंत कुमार को जाता है।दुष्यंत कुमार ने इतनी सरल भाषा में ग़ज़ल लिखी जिसे सामान्य इन्सान बिना किसी परेशानी के साथ पढ़, सुन और समझ सके! वो खुद ही एक ग़ज़ल में लिखते है कि

“मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ”

अपने लेखन के शुरुआत में परदेशी के नाम से लिखने वाले दुष्यंत कुमार ने बाद में अपना ही नाम लिखना शुरू किया। शुरुआती दौर में हर कलम की तरह दुष्यंत कुमार ने भी मोहब्बत की, प्यार की कविताएँ लिखी। अगर सब कुछ वैसा ही चलता जैसा शुरू हुआ था तो शायद दुष्यंत कुमार का नाम हिंदी के सबसे बेहतरीन मोहब्बत के कवि/ शायर के रूप में प्रचलित होता, इसका नमूना उनकी एक ग़ज़ल से पता चलता है जहाँ वो लिखते है कि

“एक जंगल है तेरी आँखों में, मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथरता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में, आज कितनें करीब पाता हूँ”
(ये वो ग़ज़ल है जिसका जिक्र फिल्म “मसान” में कई दफ़े हुआ है)

दुष्यंत कुमार उन लोगो के मन में दबी आवाज़ और आग को भलीभांति पहचानते थे जिनके अन्दर आक्रोश था, आन्दोलन था पर साहस नही था। दुष्यंत कुमार ऐसे लोगो की आवाज़ बने, ऐसे समाज का आक्रोश बने, ऐसे वर्ग का साहस बने और ये उनके ही कलम का असर है कि आज भी समाज बदलने वाली हर आवाज़, बदलाव लाने की चाहत रखने वाला हर शख्स सबसे पहले उनकी लिखी इन पंक्तियों का प्रयोग करता है

“हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए"
 
दुष्यंत ने अपने साहित्य में जो कुछ भी लिख दिया है वो आने वाले कई युगों तक लोगों के कंठ से गाए जाते रहेंगे। उनकी प्रांसगिकता कभी खत्म नहीं होगी। इसलिए भी क्योंकि उनकी लिखी हर रचना एक सच्चे हृदय में तमाम दुनियावी विसंगतियों पर उठते प्रश्न की सबसे सशक्त आवाज थी। उनका हर कथन या तो सामाजिक वरीयताओं में छल-कपट से नीचे धकेल दिए गए लोगों की आवाज थी या फिर शिखरों पर बैठे लोगों को उनकी जिम्मेदारियों को याद दिलाने वाला बयान था।

गडरिए कितने सुखी हैं ।

न वे ऊँचे दावे करते हैं
न उनको ले कर
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
जबकि
जनता की सेवा करने के भूखे
सारे दल भेडियों से टूटते हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं
जैसे कुछ नहीं हुआ है
और सब कुछ हो जाएगा ।
 

दुष्यंत कुमार की निर्भीकता का इससे बड़ा उदहारण क्या हो सकता है कि जब अधिकांश कवि/शायर और कलम सरकार से डरकर या तो लिखना बंदकर दिया या उनके पक्ष में लिखना शुरू कर दिया हो ऐसे में सीधे प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को निशाना बनाते हुए वो लिखते है कि

“एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है

एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यों कहो—
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है

कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है”

दुष्यंत की गज़लें देश के हालात ( जाहिर है ख़स्ता हालात ) से रूबरू हैं। वे इससे इतने जुड़े हुए दिखते हैं कि प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं और गज़ल नुमाया होती है । दूसरी चीज जो इन गज़लों में बखूबी देखी जा सकती है वह है लोगों की संवेदनाओं को तेज करने की ललक। वह कुछ लोगों की संवेदनहीनता और शेष की जड़ता पर व्यंग्यात्मक प्रहार करते दीखते हैं -
जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में
हम नहीं आदमी,  झुनझुने हैं ।

सामान्यतः दुष्यंत कुमार को उनकी गजलों के परिप्रेक्ष्य में ही याद किया जाता है. यह सही भी है. हिंदी में गजल को उन्होंने जिस स्थान पर पहुंचाया वहां पहुंचकर यह धारणा खंडित हो गई कि हिंदी एक भाषा के तौर पर गजल के परंपरा-मान्य कोमल भावों को वहन नहीं कर सकती. लेकिन दुष्यंत का कवि-रूप भी कमतर नहीं ठहरता. उनके गीतों में पैठा हुआ अकुंठ और निर्मल ऐंद्रिक बोध उनके गीतों और कविताओं में हर ओर मिल जाता है. उनकी रचनावली के संपादक विजय बहादुर सिंह ने उनके काव्य संग्रह 'सूर्य का स्वागत' की एक कविता को उद्घृत करते हुए लिखा है कि 'सूर्य का स्वागत की इन्हीं कविताओं ने एक समानांतर नया वातावरण रचा, जिसमें जीवन के अभावों और मुश्किलों से मुंह छिपाने या अकेले में बैठ रोने के बदले हकीकतों का सामना करने का अनूठा दम-खम और अंदाज़ था. यह एक प्रकार से कुंठा की विदाई का प्रस्थान-गीत था-
 
प्रसव-काल है !
सघन वेदना !
मन की चट्टानो कुछ खिसको
राह बना लूं,
 
....ओ स्वर-निर्झर बहो कि तुम में
गर्भवती अपनी कुंठा का कर्ण बहा लूं,
मुझको इससे मोह नहीं है
इसे विदा दूं !'

बाजार से रसोई के बीच दौड़ते हुए साधारण जन के लिए रचे गए काव्य ने दुष्यंत कुमार को अमर कर दिया है. उनकी गजलें इसी साधारण जन-जीवन की असाधारण शायरी है. उनकी शायरी में यह साधारण मनुष्य ही उनका नायक है. यही साधारण मनुष्य उनके काव्य का प्रतिमान है।दुष्यंत ने एक उम्र कविताएँ लिखने में गुज़ार दी, नाटक और उपन्यास भी लिखे पर लोकप्रियता गज़ल से ही मिली, यह अकारण नहीं है। यहाँ तक कि उनके गीत भी गज़लों की श्रेणी में पहचाने जाने लगे -
रह रह कर आँखों में चुभती है
निर्जन पथ की दोपहरी,
आगे और बढ़ो तो शायद
दृश्य सुहाने आएँगे ।
और इन्हीं सुहाने दृश्यों की मधुर परिकल्पना के साथ  30 दिसंबर 1975 को अल्प वय में भोपाल में हुए हृदयाघात से दुष्यंत चले गए लेकिन छोड़ गए एक विस्तृत आकाश, समृद्ध परंपरा और आने वाले स्वर्णिम कल की उम्मीद।

सलिल सरोज
नई दिल्ली

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