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सूरदास के पद की व्याख्या Surdas ke pado ki vyakhya

सूरदास के पद की व्याख्या

Surdas ke pad


चरन कमल बंदौ हरि राई ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै आंधर कों सब कछु दरसाई॥
बहिरो सुनै मूक पुनि बोलै रंक चले सिर छत्र धराई ।
सूरदास स्वामी करुनामय बार-बार बंदौं तेहि पाई ।।1॥

अर्थ- मै भगवान श्रीहरि के चरण कमलों की वंदना करता हूँ , जिनकी (श्रीकृष्ण की)  कृपा होने पर लंगड़ा व्यक्ति भी पर्वत को लाँघ (पार कर )  लेता है, अन्धे को सबकुछ दिखाई देने लगता है, बहरा व्यक्ति सुनने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, और गरीब व्यक्ति भी अमीर हो जाता हैया कंगाल वक्ति भी सिर पर छत्र धरण
करके चलने वाला राजा बन जाता है, सूरदास कहते है कि मै उस करुणानिधान श्रीहरि के चरणों की बन्दना बारंबार करता हूँ।

अबिगत गति कछु कहति न आवै।
ज्यों गूंगो मीठे फल की रस अन्तर्गत ही भावै॥
परम स्वादु सबहीं जु निरन्तर अमित तोष उपजावै।
मन बानी कों अगम अगोचर सो जाने जो पावै॥
रूप रैख गुन जाति जुगति बिनु निरालंब मन चकृत धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातों सूर सगुन लीला पद गावै॥२॥

अर्थ- यहाँ अव्यक्त उपासना को मनुष्य के लिए क्लिष्ट बताया है. निराकार ब्रह्म का चिंतन अनिर्वचनीय है. ( सूरदास कहते है कि जिसे जाना नही जा सकता, उसके स्वरूप का वर्णन करना असम्भव है।) वह मन और वाणी का विषय नहीं है. ठीक उसी प्रकार जैसे किसी गूंगे को मिठाई (फल) खिला दी जाय और उससे उसका स्वाद पूछा जाए, तो वह मिठाई (फल) का स्वाद नहीं बता सकता है. लेकिन उस मिठाई (फल) के रस
का आनंद उसका (हृदय अनुभव करता है) अंतर्मन जानता है। पर उसका वर्णन नही कर सकता। ठीक उसी प्रकार वह परमब्रह्म आनन्द-स्वरूप तथा तुष्टि-प्रदायक है। इसका वर्णन मन और जिह्वा द्वारा करना असम्भव है। यह इन्द्रियों से परे है। निराकार ब्रह्म का न रूप है, न गुण है  इसलिए मन वहाँ स्थिर नहीं हो सकता है, अतः निर्गुण ब्रह्मा सब प्रकार से अगम्य है। इसीलिए सूरदास कहते है कि मैँ केवल उस सगुण ब्रह्म अर्थात श्रीकृष्ण की लीला का ही गायन करना उचित समझता हूँ।

अब कै माधव मोहिं उधारि।
मगन हौं भाव अम्बुनिधि में कृपासिन्धु मुरारि॥
नीर अति गंभीर माया लोभ लहरि तरंग।
लियें जात अगाध जल में गहे ग्राह अनंग॥
मीन इन्द्रिय अतिहि काटति मोट अघ सिर भार।
पग न इत उत धरन पावत उरझि मोह सिबार॥
काम क्रोध समेत तृष्ना पवन अति झकझोर।
नाहिं चितवत देत तियसुत नाम-नौका ओर॥
थक्यौ बीच बेहाल बिह्वल सुनहु करुनामूल।
स्याम भुज गहि काढ़ि डारहु सूर ब्रज के कूल॥५॥

अर्थ – संसार रूपी सागर में माया रूपी जल भरा हुआ है, लालच की लहरें हैं, काम वासना रूपी मगरमच्छ है, इन्द्रियाँ मछलियाँ हैं और इस जीवन के सिर पर पापों की गठरी रखी हुई है. इस समुद्र में मोह सवार है. काम-क्रोध आदि की वायु झकझोर रही है. तब एक हरि नाम की नाव हीं पार लगा सकती है. स्त्री और बेटों का माया-मोह इधर-उधर देखने हीं नहीं देता. भगवान हीं हाथ पकड़कर हमारा बेड़ा पार कर सकते हैं.

मोहिं प्रभु तुमसों होड़ परी।
ना जानौं करिहौ जु कहा तुम नागर नवल हरी॥
पतित समूहनि उद्धरिबै कों तुम अब जक पकरी।
मैं तो राजिवनैननि दुरि गयो पाप पहार दरी॥
एक अधार साधु संगति कौ रचि पचि के संचरी।
भ न सोचि सोचि जिय राखी अपनी धरनि धरी॥
मेरी मुकति बिचारत हौ प्रभु पूंछत पहर घरी।
स्रम तैं तुम्हें पसीना ऐहैं कत यह जकनि करी॥
सूरदास बिनती कहा बिनवै दोषहिं देह भरी।
अपनो बिरद संभारहुगै तब यामें सब निनुरी॥६॥

अर्थ- हे प्रभु, मैंने तुमसे एक होड़ लगा ली है. तुम्हारा नाम पापियों का उद्धार करने वाला है, लेकिन मुझे इस पर विश्वास नहीं है. आज मैं यह देखने आया हूँ कि तुम कहाँ तक पापियों का उद्धार करते हो. तुमने उद्धार करने का हठ पकड़ रखा है तो मैंने पाप करने का सत्याग्रह कर रखा है. इस बाजी में देखना है कौन जीतता है. मैं तुम्हारे कमलदल जैसे नेत्रों से बचकर, पाप-पहाड़ की गुफा में छिपकर बैठ गया हूं।

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ।
मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ?
कहा करौं इहि के मारें खेलन हौं नहि जात।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता, को है तेरौ तात?
गोरे नन्द जसोदा गोरी तू कत स्यामल गात।
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत हँसत-सबै मुसकात।
तू मोहीं को मारन सीखी दाउहिं कबहुँ न खीझै।
मोहन मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै।
सुनहु कान्ह बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत।
सूर स्याम मौहिं गोधन की सौं, हौं माता तो पूत॥

अर्थ – बालक श्रीकृष्ण मैया यशोदा से शिकायत करते हुये कहते हैं, कि मैया आज बलराम भैया ने मुझे बहुत चिढ़ाते हैं. वे कहते हैं कि तुमने मुझे दाम देकर खरीदा है, तुमने मुझे जन्म नहीं दिया है. इसलिए मैं उनके साथ खेलने नहीं जाता हूँ, बलराम भैया बार-बार मुझसे पूछते हैं कि तुम्हारे माता-पिता कौन हैं. नन्द बाबा और मैया यशोदा दोनों गोरे हैं, तो तुम काले कैसे हो गए. ऐसा बोल-बोल कर वे (ग्वाल ) सब मुझे नचाते हैं, और उनके साथ सभी ग्वाल-बाल मुझपे हँसते भी हैं। तुम केवल मुझे हीं मारती हो, दाऊ को कभी नहीं मारती हो, तुम शपथ पूर्वक बताओ कि मैं तेरा हीं पुत्र हूँ।  कृष्ण के मुँह से क्रोध भरी बातें सुन सुन कर यशोदा मैया उन पर रीझ (मोहित हो) रही है और कहती है कि सुनो कान्हा बलराम तो चुगलखोर है और जन्म से ही धूर्त है।
सूरदास कहते है कि यशोदा उन्हें विश्वास दिलाती है कि मै गायों की सौगंध खाकर कहती हूँ, तू ही मेरा लला है और मै ही तेरी मैया हूँ।


मधुवन तुम्ह क्यों रहत हरे?
दुश बियोग स्यामसुण्दर के, ठाढ़े क्यों न जरे।
...........
सूरदास प्रभु बिरह दवानल, नख सिख लौं न जरे।।18।।
व्याख्या:- गोपियाँ कह रही है कि ब्रज के वन,कृष्ण के बिना तुम हरे कैसे हो?  श्यामसुंदर के वियोग में खड़े खड़े भस्म क्यों नही हो गए? मोहन तुम्हारे नीचे खड़े होकर वंशी बजाते थे, जिससे स्थिर रहने वाले वृक्षादि मुग्ध हो जाते थे, अब तुम उस चितवन को याद किए बिना ही बार बार पुष्पित होते हो। हमारे स्वामी के वियोग रूपी अग्नि मे तुम भस्म क्यों नहीं हो गए?।


मैया मै नहिं माखन खायौ।
..........
सूरदास जसुमति कौ यह सुख,सिव बिरंचि नहिं पायौ।।10।।
व्याख्या :-  यशोदा डाटती हैं तो कन्हैया उनके गले में बाँहे डालकर कहते है कि मैया मोरी, मैंने माखन नहीं खाया। यह सब सखाओ ने किया है। वे मेरे मुँह पर माखन लगाकर मुझे तुमसे दाँट लगवाना चाहते है। मैया, माखन का बरतन तो छीकें पर इतनी ऊँचाई पर रखा हुआ है। भला मेरे नन्हे हाथ उस तक कैसे पहुँच सकते है? यह कहकर श्याम ने मुख का माखन पोंछ डाला और चतुराई पूर्वक माखन का दोना पीछे छिपा दिया। पुत्र की बात सुनकर माता यशोदा ने उन्हें गले से लगा लिया। सूरदास कहते है कि प्रभु ने बाल लीला द्वारा माता को आनंदित कर मोहित कर दिया। यह सुख शिव और ब्रह्मा के लिए भी दुर्लभ है।

जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
तू काहैं नहिं बेगहिं आवै, तोकौं कान्ह बुलावै॥
कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै।
सोवत जानि मौन ह्वै कै रहि, करि-करि सैन बतावै॥
इहिं अंतर अकुलाइ उठे हरि, जसुमति मधुरैं गावै।
जो सुख सूर अमर-मुनि दुरलभ, सो नँद-भामिनि पावै॥
व्याख्या - प्रस्तुतपद में महाकवि सूरदास जी ने कृष्ण की बाल लीला का वर्णन किया है। माता यशोदा श्री कृष्ण को पालने में रख कर वे कभी पालने को हिलाती हैं , कभी पालने में पड़ें श्रीकृष्ण को प्यार करती हैं तो कभी उन्हें लोरियाँ सुनाती हैं,ताकि बालक को नींद आ जाए। माँ यशोदा नींद को उलाहना देते हुए कहती हैं कि, हे निंदिया , मेरे लाल को आकर क्यों नहीं सुलाती हो ? तुम क्यों नहीं जल्दी आती हो , मेरा कान्हा तुम्हें कब से बुला रहा है। कभी कान्हा अपनी पलकें बंद कर लेते हैं, कभी कुछ बुदबुदाते हैं। यशोदा मैया उन्हें सोता जानकर , वहाँ उपस्थित सभी गोपियों को इशारे से चुप रहने को कहती है। इसी बीच कॄष्ण बेचैन होकर उठ जाते हैं और यशोदा मैया पुनः उन्हें मधुर गीत गाकर सुलाती हैं।
सूरदास जी कहते हैं कि  कृष्ण की इस बाल लीला का सुख, जो देवताओं और सिद्‍ध मुनियों को भी दुर्लभ होता है, नंद की पत्नी को यह सुख अनायास ही प्राप्त हो रहा था।

खीझत जात माखन खात।
अरुन लोचन भौंह टेढ़ी बार बार जंभात॥
कबहुं रुनझुन चलत घुटुरुनि धूरि धूसर गात।
कबहुं झुकि कै अलक खैंच नैन जल भरि जात॥
कबहुं तोतर बोल बोलत कबहुं बोलत तात।
सूर हरि की निरखि सोभा निमिस तजत न मात॥
व्याख्या - प्रस्तुत पद में महाकवि सूरदास जी ने कृष्ण की बाल रूप का वर्णन किया है। यशोदा माता भगवान कृष्ण को माखन खिला रही हैं। कृष्ण जी चिढ़ते हुए और मचलते हुए माखन खा रहे हैं क्योंकि उन्हें नींद आ रही थी। नींद के कारण उनकी आँखें लाल और भौंहें टेढ़ी हो रही थीं। वे बार-बार जम्हाई ले रहे थे। कभी वह घुटनों के बल चलते हैं और उनके पैरों की पैंजनी के घँघरू झन-झन करते हुए बजने लगते हैं। पूरा शरीर धूल में सना हुआ है। कभी वे झुककर गुस्से से अपने ही बाल खींचने लगते हैं, जिससे उनकी आँखों में पानी भर आता है। कभी वे चिढ़कर अपनी तोतली भाषा में कुछ बोलते हैं तो कभी माता यशोदा से छुटकारा पाने के लिए अपने पिता को बुलाते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि माता यशोदा श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से मुग्ध हो जाती हैं और एक क्षण के लिए भी कृष्ण से अलग नहीं होना चाहती हैं।

मैया, मैं तौ चंद-खिलौना लैहौं ।
जैहौं लोटि धरनि पर अबहीं, तेरी गोद न ऐहौं ॥
सुरभी कौ पय पान न करिहौं, बेनी सिर न गुहैहौं ।
ह्वै हौं पूत नंद बाबा को , तेरौ सुत न कहैहौं ॥
आगैं आउ, बात सुनि मेरी, बलदेवहि न जनैहौं ।
हँसि समुझावति, कहति जसोमति, नई दुलहिया दैहौं ॥
तेरी सौ, मेरी सुनि मैया, अबहिं बियाहन जैहौं ॥
सूरदास ह्वै सखा  बराती, गीत सुमंगल गैहौं ॥
व्याख्या - प्रस्तुत पद में बालक कृष्ण की बाल लीलाओं का बड़ा ही यथार्थ वर्णन कवि ने किया है।चंद्रमा को खिलौने के रूप में पाने के लिए कृष्ण मचल गए हैं।  वे कहते हैं कि अगर उन्हें चाँद न मिला तो मै जमीन पर (धूल में) लोट जाऊँगा और तुम्हारी गोद में नहीं आऊँगा। सफ़ेद गाय का दूध न पीएँगे और अपनी चोटी भी नहीं बँधवाऊँगा। न मोतियों की माला गले में डालेंगे और न वस्त्र पहनेंगे और यही नही यशोदा को धमकाते हुए उनका यह भी कहना हैं कि नंद बाबा के पुत्र कहलाऊँगा तेरा पुत्र नही कहलाऊंगा। ऐसी प्यारी-प्यारी बातें सुनकर यशोदा उन्हें मनाते हुए कान में कहती हैं कि वे कृष्ण के लिए चाँद से भी सुंदर दुल्हनिया लाएँगी और यह बात बलराम को पता न चले। अपने विवाह की बात सुनकर कृष्ण की खुशी का ठिकाना न रहा। वे माँ को सौगंध देकर कहते हैं कि जल्दी से उनकी शादी करा दी जाए। सूरदास कहते हैं कि कृष्ण के ब्याह में उनके इष्ट-मित्र बाराती के रूप में जाएँगे और सारे मिलकर मंगल गीत गाएँगे। इस प्रकार कवि ने भगवान् श्रीकृष्ण के बाल रूप का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है।

प्रभु हौ सब पतितनि की टीकौ।
......
मरीयत लाज सूर पतितनि मै, मोहू तैं को निकौ।।
व्याख्या:- हे प्रभु संसार में मै सबसे बड़ा पतित हूँ। दूसरे पतित तो केवल कुछ समय के लिए ही पतित है। परन्तु मै तो जन्म से ही पतित हूँ। व्याध, अजामिल,गणिका और पूतना का आपने ही उद्धार किया, लेकिन मेरा उद्धार नही किया। यह हृदय का शूल कैसे समाप्त हो? मै दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि मेरे समान पापी और अधर्मी इस संसार मे कोई नही है। सूरदास इसी बात से लज्जित है हो रहे है कि इनसे बड़ा पतित कौन है, जिसका उद्धार करके आप पतित-पावन कहलाते है।

अब कै राखि लहु गोपाल।
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सूर अगिनि सब बदन समानी,अभय किए ब्रज बाल
व्याख्या :-  ग्वाल बालक भयातुर कहते है कि गोपाल , अबकी बार हमारी सहायता लर दो। दसो दिशाओं मे न सहने योग्य दावाग्नि लग गयी है। बांस पटकते हुए जल रहे है, किश और कश चटकते हुए जल रहे है। ताल और तमाल के बड़े पेड़ भी आग मे जलकर गिर रहे है। आग के बड़े बड़े टुकड़े टुकड़े उड़ उड़ कर चारो तरफ फैलती जा रही है। पृथ्वी और आकाश धुँआ से भर गया है। चारों तरफ शाम के धुंधले की तरफ धुँआ छा गया है। बीच बीच मे आग की ज्वाला चमक रही है। हरिण, सुअर,मोर,पपीहा,कोयल आदि जल रहे जीव बहुत व्याकुल है। कृष्ण हँस कर बोले की डरो मत। सब अपनी आँखे बन्द कर लो। सूरदास कहते है कि मेरे प्रभु गोविन्द के मुँह मे सारी अग्नि समा गई। सब व्रज बालक आग की तपन से सुरक्षित वच गए।

मुख दधि लेप किए सोभित कर नवनीत लिए।
घुटुरुनि चलत रेनु तन मंडित मुख दधि लेप किए॥
चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन तिलक दिए।
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन मादक मधुहिं पिए॥
कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत रुचिर हिए।
धन्य सूर एकौ पल इहिं सुख का सत कल्प जिए॥
अर्थ- भगवान श्रीकृष्ण अभी बहुत छोटे हैं और यशोदा के आंगन में घुटनों के बल चलते हैं. उनके छोटे से हाथ में ताजा मक्खन है और वे उस मक्खन को लेकर घुटनों के बल चल रहे हैं. उनके शरीर पर मिट्टी लगी हुई है. मुँह पर दही लिपटा है, उनके गाल सुंदर हैं और आँखें चपल हैं. ललाट पर गोरोचन का तिलक लगा हुआ है. बालकृष्ण के बाल घुंघराले हैं. जब वे घुटनों के बल माखन लिए हुए चलते हैं तब घुंघराले बालों की लटें उनके कपोल पर झूमने लगती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो भौंरा मधुर रस पीकर मतवाले हो गए हैं. उनका सौंदर्य उनके गले में पड़े कंठहार और सिंह नख से और बढ़ जाती है. सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण के इस बालरूप का दर्शन यदि एक पल के लिए भी हो जाता तो जीवन सार्थक हो जाए. अन्यथा सौ कल्पों तक भी यदि जीवन हो तो निरर्थक हीं है.

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहां रहति काकी है बेटी देखी नहीं कहूं ब्रज खोरी॥
काहे कों हम ब्रजतन आवतिं खेलति रहहिं आपनी पौरी।
सुनत रहति स्त्रवननि नंद ढोटा करत फिरत माखन दधि चोरी॥
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी॥14।।
अर्थ- श्रीकृष्ण जब पहली बार राधा से मिले, तो उन्होंने राधा से पूछा कि हे गोरी! तुम कौन हो? कहाँ रहती हो? किसकी पुत्री हो? मैंने तुम्हें पहले कभी ब्रज की गलियों में नहीं देखा है. तुम हमारे इस ब्रज में क्यों चली आई? अपने ही घर के आंगन में खेलती रहती. इतना सुनकर राधा बोली, मैं सुना करती थी कि नंदजी का लड़का माखन चोरी करता फिरता है. तब कृष्ण बात बदलते हुए बोले, लेकिन तुम्हारा हम क्या चुरा लेंगे. अच्छा चलो, हम दोनों मिलजुलकर खेलते हैं. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार कृष्ण ने बातों ही बातों में भोली-भाली राधा को भरमा दिया.

मुखहिं बजावत बेनु धनि यह बृंदावन की रेनु।
नंदकिसोर चरावत गैयां मुखहिं बजावत बेनु॥
मनमोहन को ध्यान धरै जिय अति सुख पावत चैन।
चलत कहां मन बस पुरातन जहां कछु लेन न देनु॥
इहां रहहु जहं जूठन पावहु ब्रज बासिनि के ऐनु।
सूरदास ह्यां की सरवरि नहिं कल्पबृच्छ सुरधेनु॥
अर्थ- यह ब्रज की मिट्टी धन्य है जहाँ श्रीकृष्ण गायों को चराते हैं तथा अधरों पर रखकर बांसुरी बजाते हैं. उस भूमि पर कृष्ण का ध्यान करने से मन को बहुत शांति मिलती है. सूरदास मन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि अरे मन! तुम क्यों इधर-उधर भटकते हो. ब्रज में हीं रहो, यहाँ न किसी से कुछ लेना है, और न किसी को कुछ देना है. ब्रज में रहते हुए ब्रजवासियों के जूठे बरतनों से जो कुछ मिले उसी को ग्रहण करने से ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है. सूरदास कहते हैं कि ब्रजभूमि की समानता कामधेनु गाय भी नहीं कर सकती है.

चोरि माखन खात चली ब्रज घर घरनि यह बात।
नंद सुत संग सखा लीन्हें चोरि माखन खात॥
कोउ कहति मेरे भवन भीतर अबहिं पैठे धाइ।
कोउ कहति मोहिं देखि द्वारें उतहिं गए पराइ॥
कोउ कहति किहि भांति हरि कों देखौं अपने धाम।
हेरि माखन देउं आछो खाइ जितनो स्याम॥
कोउ कहति मैं देखि पाऊं भरि धरौं अंकवारि।
कोउ कहति मैं बांधि राखों को सकैं निरवारि॥
सूर प्रभु के मिलन कारन करति बुद्धि विचार।
जोरि कर बिधि को मनावतिं पुरुष नंदकुमार॥
अर्थ- ब्रज के घर-घर में यह बात फ़ैल गई है कि श्रीकृष्ण अपने सखाओं के साथ चोरी करके माखन खाते हैं. एक स्थान पर कुछ ग्वालिनें आपस में चर्चा कर रही थी. उनमें से कोई ग्वालिन बोली कि अभी कुछ देर पहले हीं वो मेरे घर आए थे. कोई बोली कि मुझे दरवाजे पर खड़ी देखकर वे भाग गए. एक ग्वालिन बोली कि किस प्रकार कन्हैया को अपने घर में देखूं. मैं तो उन्हें इतना ज्यादा और बढ़िया माखन दूँ जितना वे खा सकें. लेकिन किसी तरह वे मेरे घर तो आएँ. तभी दूसरी ग्वालिन बोली कि यदि कन्हैया मुझे दिख जाएँ तो मैं उन्हें गोद में भर लूँ. एक और ग्वालिन बोली कि यदि मुझे वे मिल जाएँ तो मैं उन्हें ऐसा बांधकर रखूं कि कोई छुड़ा ही न सके. सूरदास कहते हैं कि इस प्रकार ग्वालिनें प्रभु से मिलने की जुगत बिठा रही थी. कुछ ग्वालिनें यह भी कह कर रही थी कि यदि नंदपुत्र उन्हें मिल जाएँ तो वह हाथ जोड़कर उन्हें मना लें और पतिरूप में स्वीकार कर लें.

2. मेरो मन ..............................................................दुहावै।।5।।
प्रसंग- यहाँ पर सूरदास जी र्इश्वर के प्रति अपनी अनन्य भकित को प्रकट किया है।
व्याख्या- वे कहते हैं कि मेरा मन सगुण रूप भगवान के चरणों को छोड़कर अन्यत्रा कहाँ सुख प्राप्त कर सकता है? अर्थात वह उनको छोड़कर किसी अन्य की आराधना नहीं करना चाहता। जिस प्रकार जहाज पर बैठा पंछी उड़कर अन्यत्रा कहीं आश्रय न प्राप्त कर पुन: उसी जहाज पर आकर बैठ जाता है, उसी प्रकार मन भी विभिन्न साधना मार्गों में भटक कर वापस वहीं (सगुण रूप र्इश्वर के चरणों में) लौट आता है। कमलनयन प्रभु के महात्म्य को छोड़कर अन्य किसी देवता का èयान करना वैसा ही है, जैसा प्यासे का गंगा को छोड़कर कुँवा खुदवाना, भँवरे का कमल-रस को छोड़कर करील का फल खाना अथवा कामधेनु को छोड़कर बकरी का दोहन करना।
विशेष- उपयर्ुक्त पंकितयों में सूरदास जी ने सगुण रूप र्इश्वर के प्रति अपनी गहरी आस्था को प्रकट किया है। कवि ने इस बात की ओर संकेत किया है कि सगुण रूप की आराधना बहुत ही सरल सुलभ और आनंदप्रद है जबकि निगर्ुण रूप की अराधना करता अगम्य है। अत: हमें सगुण रूप की ही आराधना करनी चाहिए।

जसुमति मन............................................................................डरै।
प्रसंग :- इस पद में Ñष्ण भक्त कवि सूरदास जी ने माता यशोदा के मन की इच्छाओं, भावनाओं को बड़ी सूक्ष्मता से प्रकट किया है।
व्याख्या :- माता यशोदा अपने मन में यह अभिलाषा करती हैं कि कब मेरा पुत्रा धरती पर घुटनों के बल रेंगेगा अर्थात चलेगा और कब धरती पर एक-दो कदम रखेगा। वे चाहती हैं कि उनका लाल शीघ्र ही चलना सीख जाए। वे यह भी चाहती हैं कि कब उनके दूध के दाँत निकलेंगे और कब तोतली भाषा में बोलेंगे। कब नन्द को बाबा कहकर बुलाएंगे, कब माँ कहकर मुझे बार-बार पुकारेंगे। न जाने कब वह समय आएगा जब मेरा मोहन मेरा आँचल पकड़कर जो-सो कहकर हट करेगा, झगड़ा करेगा। कब ये थोड़ा-थोड़ा खाने लगेगा और अपने हाथ से भोजन उठाकर अपना मुँह भरेगा। वह कब हँसकर मुझसे बात करेगा, जिसे देखकर मेरे सारे दु:ख दूर हो जाएंगे।
सूरदास जी कहते हैं कि बालक Ñष्ण को आंगन में अकेले छोड़कर माँ यशोदा घर के किसी काम से अन्दर चली गर्इ। इसी बीच एक आँधी आयी और आकाश भयंकर गड़गड़ाहट के साथ गरजने लगा। ब्रज के लोग इस भयंकर गर्जन को सुनकर, जो जहाँ था, वह वहीं बहुत अधिक डर गया। वे Ñष्ण के सुरक्षा के बारे में चिंतित हो उठे।
विशेष ;पद्ध यहाँ पर सूरदास जी ने एक माँ के मन का बड़ा मनोवैज्ञानिक चित्राण किया है। माता यशोदा के मन की इच्छा सोचµ हर माँ की इच्छा सोच का परिचय दे रही है।

सुत सुख.....................................................................................फूली।
प्रसंग- जन्मांध होते हुए भी सूरदास जी ने Ñष्ण की बाल-स्वरूप की अलग-अलग दशाओं का बड़ा ही संजीव चित्रा प्रस्तुत किया है। यहाँ पर वे माता यशोदा के उस समय की मन की खुशी को व्यक्त किया है, जब वे Ñष्ण के मुख में पहले-पहल दूध के दाँत देखती हैं।
व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं किµपुत्रा के मुख को देखकर माता यशोदा आनंदित हो उठती हैं। वे बालक Ñष्ण के मुख में दुध के दाँत देखकर, हर्षित हो उनके पुत्रा-प्रेम निमग्न हो, शरीर की सुध-बुध भूल जाती हैं। तब वे बाहर जाकर इस सुन्दर छवि को देखने के लिए बाबा नन्द को बुलाकर लाती हैं और कहती हैं कि इस सुन्दर, सुखदायक Ñष्ण की छवि को देखिए। पुत्रा के मुख के इन छोटे-छोटे दूध के दाँतों को देखकर अपने नेत्राों को सफल कीजिए तब प्रसन्नता के साथ बाबा नन्द अन्दर आये तथा पुत्रा के मुख को देखकर उनके नेत्रा तृप्त हो गये। सूरदास जी कहते हंै उस यदुराज नन्द ने किलकारी मारते हुए पुत्रा के दाँतों को देखा तो उन्हें ऐसा लगा, मानों कमल पर बिजली जग आयी हो।

सोमित कर.................................................................का सत कल्प जिए।
प्रसंग- इस पद में कवि सूरदास जी ने श्री Ñष्ण को बाल-लीलाओं का बड़ा मनोहारी चित्रा अंकित किया है।
व्याख्या- बालक श्री Ñष्ण हाथ में मक्खन लिए हुए सुशोभित हो रहे हैं। घुटनों के बल चलते हैं, धूल से शरीर लिपटा हुआ है और मुख पर दही का लेप लगाये हुए हैं। उनके गाल और नेत्रा बड़े सुन्दर हैं और मस्तक पर सुगनिधत गोरोचन का तिलक लगा रखा है। Ñष्ण के घुँघुराले वालों को लट माथे पर लटकी हुर्इ है, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो मतवाले भौंरों का समूह मादक रस (मधु) का पान कर रहे हैं। उनके गले में कंठुला (कंठी) और âदय पर ब्रजनक्खा (एक तावीज जो शेर के नाखून से बना होता है) सुशोभित हो रहा है। श्री Ñष्ण की इस बाल-छवि को अपने अन्तर्चक्षु से देखकर सूरदास जी अपने को धन्य समझते हैं। बाल-माधुरी का एक पल का यह दर्शन-सुख कवि को सैकड़ों कल्पों अर्थात अनन्त काल के जीवन से कहीं अधिक सुखदायक प्रतीत होता है।
विशेष- स्वाभावोकित अलंकार द्वारा ही चाक्षुष-विम्ब प्रस्तुत कर दिया गया है।
'लट-लटकनि.............मधुहिं-पिए में एक साथ शब्दालंकारों और अर्थालंकरों की झड़ी सी लगा दी है छेकानुप्रास, उत्पे्रक्षा, रूपकांतिशयोकित, अतिशयोकित आदि अलंकार अनायास प्रयुक्त हो गए हैं। अंतिम पंकित में अतिशयोकित अलंकार है।

मैया री.......................................मन की जानी।
प्रसंग- यहाँ Ñष्ण की बाल-चेष्टाओं की झलक दिखाने की कोशिश की गर्इ है।
व्याख्या- सूरदास जी कहते हैं किµबालक Ñष्ण अपनी माँ से अपने मन की बाल बताते हुए कहते हैं कि हे माँ। मुझे अन्य पकवानों की अपेक्षा मक्खन ही प्रिय है। यदि तू मेवा-पकवान आदि खाने के लिए कहती तो मुझे अच्छा नहीं लगता। ब्रज की एक गोपिका पीछे खड़ी हुर्इ Ñष्ण की इन बातों की सुन लेती है और मन ही मन अभिलाषा करती है कि कब वह अपने घर में Ñष्ण को मक्खन खाते हुए देखेगी। जब वह मटकी के पास जाकर बैठ जाएंगे तो वह छुपकर इस दृश्य का आनंद लेगी। सूरदास जी कहते हैं कि Ñष्ण तो अन्र्तयामी हैं वे गोपिका के मन की बात को जान लेते हैं और उसकी अभिलाषा को पूरा कर देते हैं।
विशेष- ;पद्ध कवि ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि सब पकवानों की अपेक्षा Ñष्ण को मक्खन प्रिय है तभी तो उनको माखन-चोर भी कहा जाता है।

मुरली तऊ.....................................................................घर तैं सीस डुलावति।

प्रसंग- इस पद में नेत्राहीन सूरदास जी ने Ñष्ण के ऊपर मुरली के प्रभाव और उससे गोपियों की मुरली से होने वाली स्वाभाविक जलन का बड़ा ही स्वाभाविक चित्रा प्रस्तुत किया है।
व्याख्या- एक सखी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी! मुरली तब भी कृष्ण की सबसे अधिक प्रिय है, जबकि वह नन्द नन्दन को अनेक प्रकार से नाच नचाती है। वह उन्हें एक पैर पर खड़ा करके रखती है और अपना अत्यधिक अधिकार उन पर जताती है। वह कृष्ण के कोमल तन से आज्ञा का पालन करवाती है, जिससे कृष्ण को कमर टेढ़ी हो आती है। यही नहीं अत्यधिक आधीन तथा Ñतदास जैसा वह सुजान कृष्ण की गर्दन की गर्दन को झुकवाती है। स्वयं कृष्ण के अधरों रूपी सेज पर विराजमान होकर उनके पल्लव सदृश कोमल हाथों से अपने पैरों को दबवाती है टेढ़ी भृकुटी, बाँके नेत्रा और फड़कते हुए नासिका पुटों से हम पर क्रोध करवाती हैं। सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ कहती हैं कि वह कृष्ण को एक क्षण के लिए भी प्रसन्न जानकर धड़ से सिर हिलवाती हैं अर्थात नहीं, नहीं का संकेत करवाती है।


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