लघुकथा-"दर्प"
" ये क्या साहब जी, केवल बीस रुपये आपने दिया है?आपके पड़ोसी तिवारी जी ने तो पूरे एक सौ एक दिए हैं।"
कोई चंदा मांगने वाला कह रहा था।
"ओह ऐसा क्या?"
"जी साहब यह चंदे की रसीद आप देख लीजिए।" चंदे मांगने वालों ने कहा।
राय साहब ने चंदे की रसीद को देखा। वाकई उनके पड़ोसी तिवारी जी ने पूरे एक सौ एक रुपए दिए थे। वे चुपचाप घर के अंदर गये और पचास का नोट देते हुए बोले,"लो भाई, अब पचास तो चलेगा न ?"
चंदा मांगने वालों ने खिसियानी आवाज में कहा," क्या भाई साहब, आप भी इतनी कंजूसी कर रहे हैं। देखिये आपके सामने वाले फ्लैट में रहने वाले भट्ट जी ने एक सौ इक्यावन रुपए दान किये हैं।"
तभी राय साहब की धर्मपत्नी बाहर निकलीं। उन्हें जब पता चला कि उनके पड़ोसी तिवारी जी ने एक सौ एक रूपये और सामने वाले पड़ोसी ने एक सौ इक्वान रूपये दिए हैं तो उसने अपने पति को घर के अंदर बुलाकर कहा,"आप भी न जब देखो तब मेरी नाक कटवाने पर तुले रहते हो। अरे, जब सारी पड़ोसिनें किटी पार्टी में मिलेंगी तो सब मुझे नीची नजरों से देखेंगी ।वे खूब बातें बनाएंगी ।मेरा रुतबा तो चला जायेगा न? ऐसा करो तुम उन चंदे वालों को दो सौ इक्यावन रूपये दे दो। आखिर हम किसी से कम थोड़े न हैं।"
ऐसा कहते हुए उनके चेहरे पर दर्प झलकने लगा।
डॉ. शैल चन्द्रा
रावण भाठा, नगरी
जिला-धमतरी
छत्तीसगढ़
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