लघुकथा
मेरी तनख्वाह
"सुनो जी, मुझे थोड़े पैसे चाहिए।क्या है कि पंद्रह दिनों बाद जया की सगाई है और मेरे पास कोई ढंग की साड़ी नहीं है।एक अच्छी सी मुझे साड़ी लेनी है।"
विभा अपने पति से कह रही थी।
" तुम्हारी आलमारी तो साड़ियों से भरी हुई है। फिर तुम्हारी नहीं विभा की सगाई है। तुम क्या करोगी वहाँ नई साड़ी पहन कर?"
पति का ऐसा बेतुका जवाब सुनकर विभा मन मसोस कर रह गई।
विभा एक सरकारी द्फ्तर में क्लर्क है।अच्छी खासी तनख्वाह है पर पूरी तनख्वाह पति के हाथों में रहती है। पहले ज़माने में नकद राशि तनख्वाह में मिलती थी पर अब तो बैंक खाते में पूरी तनख्वाह जमा हो जाती है और एटीएम विभा के पति के हाथों में रहता है।
आज सुबह विभा की मम्मी का फोन आया कि उसके पिता को दिल का दौरा पड़ा है। हॉस्पिटल में एडमिट हैं। ऑपरेशन में पचास हजार की जरूरत है। विभा ने यह सुना तो वह सबसे पहले बैंक गई। पास बुक उसने आलमारी से चुपचाप निकाल लिया था। उसने अपने खाते में से पचास हजार निकाला और अपनी मम्मी के पास हॉस्पिटल में जमा करवा दिए। ऑपरेशन सफल रहा।
इस बात को बीते आज पन्द्रह दिन बीत गए।आज विभा के पति पूछ रहे थे-"विभा,तुम्हारी तनख्वाह में से पूरे पचास हजार रुपये निकाले गए हैं।किसने निकाला ?"
यह सुनकर विभा सहम गई। उसने डरते -झिझकते हुये कहा," वो क्या था पापा को दिल का दौरा पड़ा था तो उन्हें ऑपरेशन के लिए मैंने दिए।"
" क्या? " विभा का पति दहाड़ा। "तुमने अपने मायके वालों को मुझसे बिना पूछे पचास हजार दे दिए। तुम्हारी हिम्मत बहुत बढ़ती जा रही है। मेरे घर में मेरी मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए समझीं ?
"मेरा अपना पैसा है। मेरी मेहनत का पैसा है। मेरे माता-पिता ने मुझे इस योग्य बनाया। क्या मेरी कमाई पर मेरा बिल्कुल हक नहीं है? पढ़ी -लिखी नौकरीपेशा महिलाओं को देखकर लोग सोचते हैं कि अब महिलाएं शोषण मुक्त होंगी ,पर यह सोच कितना गलत है। आप कान खोलकर सुन लीजिये ।आज के बाद मेरी कमाई पर सिर्फ मेरा हक होगा।आप मुझे विवश नहीं कर सकते।अब मेँ बेबस बन कर नहीं रहूँगी।मेरे माता -पिता का मेरे आलावा और कोई भी नहीं है। उनकी देखरेख करना भी मेरी जिम्मेदारी है। " विभा ने दृढ़तापूर्वक कहा।
विभा का अचानक यह बदला हुआ रूप देखकर विभा का पति सकते में आ गया।
डॉ.शैल चन्द्रा
रावण भाठा, नगरी
जिला-धमतरी
छत्तीसगढ़
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