दुःखी किसान
इस भयंकर वर्षा ने हरी फसल को सुला दिया,
उस गरीब किसान को इसने मार के रुला दिया।
जो अपना कर्म समझ के पी रहा चोटों का दर्द,
आज उस अन्नदाता को ईश्वर ने भी भुला दिया।।
वर्षा के कितने रुप,कभी अमृत तो कभी जहर,
लेकर आई यह विनाशी अंधकार मचाया है कहर।
पाला था इसने अपने खून-पसीने से अन्न को,
बरसात ने उजाड़ा है उसके सपनों का शहर।।
भरने पेट संसार का खाए उसने आलू भून के,
कितनी करुणा कितने आंसू पिए उसने खून के।
सींचता रहा वह संसार को अपने हड्डी शरीर से,
फिर फांसी पर झूल रहा अपनी किस्मत ढूंढ के।।
निरंतर पतझड़ में डूब रहा,जो था पहले सुंदर,
अब नेता आए हैं लाभ उठाने बनकर छछूंदर।
जिसका ऋणी है संसार उसका ऋण उतारेंगे ये,
देख इनकी हरकतों को रो रहा अंबर और समुंदर।।
इस धरा के देवता की हालत कब सुधरेगी हे भोले,
इस अन्नदाता के जीवन में बरस रहें हैं भीषण शोले।
खुद भूखा सोकर मिटाता संसार की भूख यह देवता,
तब मन और दुखी हो जाता है जब गिरते हैं ओले।।
आंधी तूफान बर्षा से बचाकर आनाज को,भर रहा संसार का पेट।
कहे प्रेमशंकर मानव तो मानव, प्रकृति भी कर रही उसका आखेट।।
~ प्रेम शंकर "नूरपुरिया"
मौलिक स्वरचित अप्रकाशित
पता: आंवला बरेली उत्तर प्रदेश
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