जय लोकडाउनेश्वर महादेव
लॉकडाउन का असर देखा
झोंपड़ी की दहलीज़ पर
बैठे बैठे घासी ने हर तरफ देखा
किसी से मिलना नहीं
पास बिल्कुल जाना नहीं
दूर से बात करो
हाथ मगर मिलाना नहीं
घासी सोचने लगा
मैं तो सदियों से मजबूर हूं
पास हो कर भी
हर एक से दूर हूं
न गांव के कुएं से पानी भर सकता
न मंदिर की चौखट लांघ सकता
मैं सदियों से अस्पृश्य हूं
आज कुदरत ने
सबको ये अहसास करा दिया
शायद मेरे अस्पृश्य होने की
वेदना समझ पाएं लोग
लॉकडाउन के बाद।
मन ही मन सोचों मे घिरे
घासी ने पास पड़ा पत्थर
उठाया और करने लगा
यूं ही समय काटने का
प्रयत्न।
वार पे वार
निरंतर प्रहार
सुबह से हुई शाम
घिर आई धुंधलकी रात
पत्थर अब बन चुका था
नए आकार में ढल चुका था
सुंदर कोई मूर्ति सा
वो पत्थर लगता ऐसा।
पत्थर को रख वहीं
चल दिया घासी कहीं
पानी पी कर
रूखी सुखी खाकर
सो गया झोंपड़ी के
कच्चे टूटे फर्स पर।
सुबह कुछ शोर सुना
घासी ने झोंपड़ी से झांक
उसी पेड़ के पास
लोगों का हुजूम जमा
पास जा कर देखा
जय जयकार थी
धूंप दीप झनकार थी
लोग हाथ बांधे खड़े थे
कुछ जमी पे लेटे पड़े थे
जरा उचक कर देखा
वही पत्थर जो कल
घासी ने बनाया था बैठे बैठे
अब बदल चुका था
कुमकुम से रंगा
लाल कपड़े से ढका था
तभी घासी के कानों में
कर्कस सी आवाज पड़ी
दूर हट अछूत यहां से
भगवान की मूर्ति को
अपवित्र करेगा?
भगवान का कोप होगा
पूरी उम्र पीड़ा भोगेगा।
मन ही मन घासी
जय बोल कर देव की
चल दिया फिर नये
पत्थर की तलाश में
शायद उसे भी बनाएगा
तराश कर ईश्वर
किसी ना किसी पत्थर में
निकलेगा ऐसा ईश्वर
जो उसका अपना होगा।
ब्रह्मानंद गर्ग जैसलमेर
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