जिगर मुरादाबादी*( जिगर जयन्ती 6 अप्रैल पर विशेष)
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20 वीं सदी के मशहूर उर्दू शायर और उर्दू गजल के नामवर हस्ताक्षरों में से एक जिगर मुरादबादी का जन्म 6 अप्रैल 1890 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में शायर पिता मौलाना अली 'नज़र' के घर में हुआ। शुरुआती तालीम तो उन्होने हासिल कर ली लेकिन खराब सेहत और घरेलू परेशानियों के चलते आगे की पढ़ाई नहीं कर सके।ज़ाती शौक़ के चलते उन्होंने घर पर ही फ़ारसी की पढ़ाई पूरी की। उनके बचपन का नाम अली सिकंदर था। उनके पूर्वज मौलवी मुहम्मद समीअ़ दिल्ली निवासी थे और शाहजहाँ बादशाह के शिक्षक थे। लेकिन बादशाह की नाराजगी के चलते दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद जा बसे। ‘जिगर’ के दादा हाफ़िज़ मुहम्मदनूर ‘नूर’ साहब भो एक बड़े शायर थे।
जिगर मुरादाबादी को अपने दौर में बेमिसाल शोहरत मिली। उनकी शोहरत रंगारंग शख़्सियत, ग़ज़ल कहने के अलग ढंग एवं नग़मा-ओ-तरन्नुम की बदौलत थी। उनकी नये ढंग की शायरी के चलते मुल्क की शायरी का रंग ही बदल गया और बहुत से शायरों ने न सिर्फ़ उनके रंग-ए-कलाम की बल्कि तरन्नुम की भी नक़ल करने की कोशिश की। मैने की बात तो ये है कि जब जिगर साहब अपने तरन्नुम का अंदाज़ बदल देते तो उसकी भी नक़ल होने लगती। बहरहाल दूसरों से उनके शे’री अंदाज़ या सुरीली आवाज़ की नक़ल तो मुमकिन थी लेकिन उनकी शख़्सियत की नक़ल नामुमकिन थी। जिगर की शायरी असल में उनकी शख़्सियत का आईना थी। इसलिए जिगर, जिगर रहे, उनके समकालिकों में या बाद में भी कोई उनके रंग और तग़ज़्ज़ुल को नहीं पा सका।
किताबें --
दाग ए जिगर
दीवान ए जिगर
शोला ए तूर (1937)
आतिश ए गुल(1951)
साहित्य अकादमी एवार्ड(1958)
अश्आर
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं।
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं।
दिल में किसी के राह किए जा रहा हूँ मैं।
कितना हसीं गुनाह किए जा रहा हूँ मैं।
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।
हम ने सीने से लगाया दिल न अपना बन सका,
मुस्कुरा कर तुम ने देखा दिल तुम्हारा हो गया।
इक लफ़्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है।
सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है।
जिगर मुरादाबादी की ग़ज़लें
वो अदा-ए-दिलबरी हो कि नवा-ए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़त्ह कर ले वही फ़ातेह-ए-ज़माना।
ये तिरा जमाल-ए-कामिल ये शबाब का ज़माना।
दिल-ए-दुश्मनाँ सलामत दिल-ए-दोस्ताँ निशाना।
कभी हुस्न की तबीअत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़-ए-बे-नियाज़ी वही शान-ए-ख़ुसरवाना।
मैं हूँ उस मक़ाम पर अब कि फ़िराक़ ओ वस्ल कैसे,
मिरा इश्क़ भी कहानी तिरा हुस्न भी फ़साना।
मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे,
मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना।
तिरे इश्क़ की करामत ये अगर नहीं तो क्या है,
कभी बे-अदब न गुज़रा मिरे पास से ज़माना।
तिरी दूरी ओ हुज़ूरी का ये है अजीब आलम,
अभी ज़िंदगी हक़ीक़त अभी ज़िंदगी फ़साना।
मिरे हम-सफ़ीर बुलबुल मिरा तेरा। साथ ही क्या,
मैं ज़मीर-ए-दश्त-ओ-दरिया तू असीर-ए-आशियाना।
मैं वो साफ़ ही न कह दूँ जो है फ़र्क़ मुझ में तुझ में,
तिरा दर्द दर्द-ए-तन्हा मिरा ग़म। ग़म-ए-ज़माना।
तिरे दिल के टूटने पर है किसी को नाज़ क्या क्या,
तुझे ऐ 'जिगर' मुबारक ये शिकस्त-ए-फ़ातेहाना
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इश्क़ को बे-नक़ाब होना था
आप अपना जवाब होना था
मस्त-ए-जाम-ए-शराब होना था।
बे-ख़ुद-ए-इज़्तिराब होना था।
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं,
हाँ मुझी को ख़राब होना था।
आओ मिल जाओ मुस्कुरा के गले,
हो चुका जो इताब होना था
कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया ,इ ुी
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था डंइिइ
मस्त-ए-जाम-ए-शराब ख़ाक होते जब,
ग़र्क़ - ए- जाम- ए- शराब होना था।
दिल कि जिस पर हैं नक़्श-ए-रंगा-रंग,
उस को सादा किताब होना। था।
हम ने नाकामियों को ढूँड लिया ,
आख़िरश कामयाब होना था।
हाए वो लम्हा-ए-सुकूँ कि जिसे ,
महशर-ए-इज़्तिराब होना था।
निगह-ए-यार ख़ुद तड़प उठती,
शर्त-ए-अव्वल ख़राब होना था।
क्यूँ न होता सितम भी बे-पायाँ ,
करम -ए- बे- हिसाब होना था।
क्यूँ नज़र हैरतों में डूब गई
मौज-ए-सद-इज़्तिराब होना था।
हो चुका रोज़-ए-अव्वलीं ही 'जिगर',
जिस को जितना ख़राब होना था।
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वफात (निधन)
जिगर की वफात गोंडा में 9 सितंबर 1960 को हो गयी। उनके मृत्यु के बाद गोंडा शहर में एक छोटी सी आवासीय कॉलोनी का नाम उनकी याद में *जिगरगंज* रखा गया। गोंडा के एक इंटरमीडिएट कॉलेज का नाम भी उनके नाम पर "दि जिगर मेमोरियल इंटर कॉलेज" रखा गया। मज़ार-ए-जिगर मुरादाबादी, तोपखाना, गोंडा में स्थित है।उन्हें अपने कविता संग्रह "आतिश-ए-गुल" के लिए 1958 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और मानद डी.लिट से सम्मानित किया गया।
अब्दुल हमीद इदरीसी,
हमीद कानपुरी,
फेथफुलगंज, छावनी, कानपुर-208004
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