आंखें झुकायी
आज चांदनी भी शर्म से आंखें झुकायी।कह न सकता अप्सरा धरा पे कैसे आयी।।
झर रहे हैँ फूल उसके बोल से।
देख मुझको कुछ इस तरह वो मुस्करायी।।
पुष्प सम कोमल वदन पे विद्युत सी चमक।
देखकर वो मुझे कुछ यूँ शर्म खायी।।
मदहोश करती तन गंध मिली जो समीर मे।
सांसें अटकी आशिकों की मन को दुखायी।।
पथिक पथ को भूलकर शूल हृदि मे है बडा़।
खड़ा वह सोचता नजरें वो किस पर उठायी।।
जमीं भी शर्म खाती जब पांव वो धरती पे धरे।
उसके रास्ते पे वो सुकोमल घासें है विछायी।।
गृह से कदम बाहर धरे तो देखते देवादि भी।
सोचती उनकी देवियां ये रूप आफत कहां पायी।।
रह न पाये कब्र मे भूत पितर गन्धर्व भी।
राह में सजदे करें अस्थियां कुछ यूँ चरमरायी।।
स्वरचित मौलिक
।। कविरंग।।
सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)

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