ग़ज़ल
बेवजह न सनम मुस्कुराया करो।रंग महफिल में इतना न लाया करो।
मानता हूं वो आशिक है इस दौर के,
हौसला इस कदर न बढ़ाया करो।
हर नज़र के तले है जवानी तेरी
जिस्म का शहर में न नुमाया करो।
क्या पता कौन सा तीर दिल में चुभे
अपना गोरा बदन कुछ छुपाया करो।
फिक्र हमे तुम्हारी इस कदर हो रही,
कुछ हमसे भी तुम फरमाया करो।
जानता हूं खुशी की इजाज़त नही,
उनके आंखो में आंसू न लाया करो।
जब गिरे फूल की अहमियत ही नही,
साधक जोर से न डाली हिलाया करो।
स्वरचित
#प्रमोद वर्मा 'साधक'
रमपुरवा रिसिया बहराइच

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