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कविता - एक गुजारिश ek gujarish


एक गुजारिश

कुछ वक़्त अपने भी साथ बिता कर देखो,
अपनों की भी कद्र है तुम्हें यह जता कर देखो।

घर की चारदीवारी भी सुकून दिया करती है,
अगर यकीन नहीं है तो ज़रा आजमाकर देखो।

बेड़ियां पहना लो अपने इन आवारा कदमों को,
कैद में भी सुकून है ,इस एहसास को जगाकर देखो।

फिजाओं में हर तरफ मौत का फैला सन्नाटा है,
यकीन नहीं है अगर तो निगाहों को उठाकर देखो।

"कोरोना" की विभीषिका भी टल जाएगी,
हौसले और समझदारी से उसे हरा कर देखो।


प्रेषक:कल्पना सिंह

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