कविता से प्यार हुआ धीरे धीरे
बिना बसंत के ही खिले ,
लिखें मैं रोशन कविता, शब्द-शब्द से मिले ,
मिलते ही हुआ कविता से प्यार वह भी धीरे धीरे !
अब कविता ही मेरी जन्नत और वही है मेरी हीरे ,
जिसको देना रहा दिल रे ,
वहां खूब लगा रहा भीड़ रे !
क्यों ? खूब सुन्दर रहा वह शरीर रे ,
उस सुन्दरी की दिल हम कैसे चुराते ,
हम चुराये न पर कविता चुरा लिया मेरा दिल रे !
वहां खूब लगा रहा भीड़ रे !
क्यों ? खूब सुन्दर रहा वह शरीर रे ,
उस सुन्दरी की दिल हम कैसे चुराते ,
हम चुराये न पर कविता चुरा लिया मेरा दिल रे !
चुराया , कुछ बात रहा इसीलिए ,
कविता से हम यूँ ही मिले ,
फिर क्या देखें आसमान नीले-नीले !
पता न चला इतना प्यार हो गया कविता से धीरे-धीरे !
कविता से हम यूँ ही मिले ,
फिर क्या देखें आसमान नीले-नीले !
पता न चला इतना प्यार हो गया कविता से धीरे-धीरे !
धन्यवाद !
रोशन कुमार झा
सुरेन्द्रनाथ इवनिंग कॉलेज
सुरेन्द्रनाथ इवनिंग कॉलेज
कोलकाता
No comments:
Post a Comment