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कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धांत/Moral development theory of Kohlberg/Vikas ka siddhant

                            कोहलबर्ग का नैतिक विकास का सिद्धान्त

       Kohlberg :- Moral development theory 

 कोहलबर्ग ने विभिन्न प्रकार के प्रयोगों द्वारा यह बताया कि बालक में नैतिक विकास की तीन अवस्थाएं पाई जाती है। प्रत्येक स्तर में दो दो अवस्थाये होती है कोहलबर्ग ने यह बताया कि प्रत्येक अवस्था का जो क्रम होता है वह निश्चित होता है। परंतु प्रत्येक व्यक्ति में सामान उम्र में यह आवस्थाएं हो यह निश्चित नहीं होता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में नहीं प्रवेश कर सकता है।

(1) पूर्व रूढ़िगत नैतिकता अवस्था (Level of pre- conventional level)

पूर्व रूढ़िगत नैतिकता स्तर बालक में 4 से 10 साल की आयु तक होती है। किसी विषय वस्तु के बारे में सही या गलत का निर्णय खुद न लेकर के दूसरे के द्वारा बनाए गए मानक के आधार पर करता है।बालक इसमें किसी विषय वस्तु को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर मानता हैं।इसमें दो अवस्था में पाई जाती है।प्रथम अवस्था में बालक सम्मानित व्यक्ति,माता-पिता और शक्तिशाली आदि के प्रति सम्मान दिखाता है। ताकि उसे दंड न प्राप्त हो सके।दूसरी अवस्था में बालक में पुरस्कार की अभिप्रेरणा प्रबल होती है। जिसकी वजह से उसके अंदर दिखावे की योजना होती है। जिसमें बालक कार्यो में सहभागिता आदि दिखाता है।

इसके अंतर्गत 2 चरण होते हैं।

(1) दंड तथा आज्ञा पालन अभिमुकता – बालकों के मन में आज्ञा पालन का भाव दंड पर आधारित होता है। बालक स्वयं को परेशानियों से बचाना चाहता है। कोहलबर्ग का मानना है कि कोई बालक यदि स्वीकृत व्यवहार अपनाता है तो इसका कारण दंड से स्वयं को बचाना है।

2)  आत्म अभिरुचि तथा प्रतिफल अभीमुकता – इस अवस्था में बालकों का व्यवहार खुलकर सामने नहीं आता है।वह अपनी रुचि को प्राथमिकता देता है।वह पुरस्कार पाने के लिए नियमों का पालन करता है


2■  रूढ़िगत नैतिकता का स्तर( Level of conventional morality)

रूढ़िगत नैतिकता का स्तर बालक में 10 से 13 साल की उम्र में पाया जाता है।इसमें बालक कुछ ऐसा करता है जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।और दूसरे की मदद के लिए उत्सुक होता है। इस अवस्था में बालक दूसरे व्यक्ति के नैतिक व्यवहारों को अपने व्यवहार में समाहित करता ह। तथा उस मानक के सही एवं गलत पक्ष का भी चिंतन के माध्यम से निर्णय करता है तथा उस पर अपनी सहमति बनाता है।इस स्तर पर बालक अपनी आवश्यकता के साथ-साथ दूसरों की आवश्यकता का भी ध्यान रखता है इस स्तर के भी 2 भाग होते हैं।

1) अधिकार संरक्षण अभिमुखता – इस अवस्था में बच्चे नियम एवं व्यवस्था के प्रति जागरूक होते हैं।तथा वे नियम एवं व्यवस्था के अनुपालन के प्रति जवाबदेह होते हैं।

2) अच्छा लड़का या अच्छी लड़की – इस अवस्था में बच्चे में एक दूसरे का सम्मान करने की भावना होती है तथा दूसरे से भी सम्मान पाने की इच्छा जाहिर की जाती।




(3) उत्तर रूढ़िगत नैतिकता का स्तर( Level of post-conventional morality)

इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण संपूर्ण रूप से आंतरिक नियंत्रण में होता है। यह नैतिकता का उच्च स्तर होता है।कोहलबर्ग ने यह बताया कि जैसे-जैसे बालक परिपक्व होता है वैसे वैसे उसके नैतिकता का स्तर बढ़ता चला जाता है।व्यक्ति नैतिकता के किसी भी चरण को छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता है प्रत्येक क्रम को उसे पार करना होता है।

मानव विकास की वृद्धि एवं विकास के कई आयाम होते हैं। विकास की विभिन्न अवस्थाओं के बालकों में कुछ खास गुण एवं विशेषताएं उभर कर सामने आती है।इसके अंतर्गत व्यस्त वस्तुओं को निर्धारित कर कार्य करना सीख जाता है। इसके अंतर्गत भी 2 चरण होते हैं।

1) सामाजिक अनुबंध अभिमुखता – इस अवस्था में बच्चे वही करते हैं जो उन्हें सही लगता है।तथा वे यह भी सोचते हैं कि स्थापित नियमों में सुधार की आवश्यकता तो नहीं है। उदाहरण स्वरूप यदि एक व्यक्ति अपने बच्चे की जान बचाने के लिए दवा की चोरी करता है। तो यहां देखा जाएगा कि जीवन बचाना यहां महत्वपूर्ण है।

2) सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त अभिमुखता – इस अवस्था में अंतःकरण की आर्य अग्रसर हो जाती हैं।अब बच्चे का आचरण दूसरे की प्रतिक्रियाओं का विचार किए बिना उसके आंतरिक आदर्शों के द्वारा होता है।यहां बच्चे के अनुरूप व्यवहार करना है।


कोहलबर्ग के नैतिक विकास के सिद्धांत की अन्य अवस्थाएं-

कोहलबर्ग में नैतिक विकास की अवस्था के कुछ अन्य सिद्धांत भी दिए हैं जो निम्न प्रकार के हैं।

स्वकेन्द्रित अवस्था –

●इस अवस्था का कार्यकाल तीसरे वर्ष से शुरू वर्ष से शुरू होकर 6 वर्ष तक तक का होता है।

●इस अवस्था के बालक की सभी व्यवहारिक क्रियाएं अपनी वैयक्तिक आवश्यकता और इच्छाओं की पूर्ति के चारों ओर केंद्रित रहते हैं बालक के लिए वही नैतिक होता है जो उसके स्व अथवा आत्म कल्याण से जुड़ा हुआ हो।


परम्पराओ को धारण करने वाली अवस्था –

● 7 वर्ष से लेकर किशोरावस्था के प्रारंभिक काल तक यह यह अवस्था होती है।

● इस अवस्था का बालक सामाजिकता के गुणों को धारण करता हुआ देखा जाता है।अतः उसमें समाज के बनाए नियमों परंपराओं तथा मूल्यों को धारण करने संबंधी नैतिकता का विकास होता हुआ देखा जा सकता है।

● इस अवस्था में उसे अच्छाई बुराई का ज्ञान हो जाता है। और वह यह समझने लगता है। कि उसके किस प्रकार के आचरण या व्यवहार से दूसरों का हित या ठेस पहुंच रही है।


आधारहीन आत्मचेतना अवस्था –

● यह अवस्था किशोरावस्था से जुड़ी हुई अवस्था होती है।

● इस अवस्था में बालकों का सामाजिक शारीरिक तथा मानसिक विकास अपनी ऊंचाइयों को छूने लगता है। और उसने आत्म चेतना की शुरुआत हो जाती है चेतना की शुरुआत हो जाती है हो जाती है।

● यह मेरा आचरण है मैं ऐसे व्यवहार करता हूं इसकी उसे अनुभूत होने लगती है।तथा अपने व्यवहार आचरण और व्यक्तित्व संबंधी गुणों की स्वयं ही आलोचना करने की प्रवृत्ति उसमें पनपने लगती है।

● पूर्णता की चाह उसमे स्वयं स्वयं उसमे स्वयं चाह उसमे स्वयं स्वयं उसमे स्वयं स्वयं से असंतुष्ट रहने का मार्ग प्रशस्त करती है।यही असंतुष्ट उसे समाज सदा परिवेश में जो कुछ गलत हो रहा है उसे बदल डालने व परंपराओं के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाने को प्रेरित करती है।


अधारयुक्त आत्मचेतना अवस्था –

● नैतिक व चारित्रिक विकास की या चरम अवस्था है है चरम अवस्था है है या चरम अवस्था है है चरम या चरम अवस्था है है चरम अवस्था है वाली बात परिपक्वता ग्रहण करने के बाद ही इस अवस्था का विकास संभव है।

● जिस प्रकार के नैतिक आचरण और चारित्रिक मूल्यों की बात बालक विशेष में की जाती है। उसके पीछे केवल उसकी भावनाओं का प्रवाह मात्र ही नहीं होता। बल्कि वह अपनी मानसिक शक्तियों का उचित प्रयोग करता हुआ। अच्छी तरह सोच समझकर इसी व्यवहार या आचरण विशेष को अपने व्यक्तित्व गुणों में धारण करता हुआ पाया जाता है।

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