ग़ज़ल
देखता हूँ मैं जिसे वो तो मुझे देखता नहीं ।
पर उसी की बात करते दिल मिरा थकता नहीं ।
बोल देतीं दूर जाने के लिए खुद से मुझे ।
बोलकर सच छोड़ना तेरा मुझे खलता नहीं ।।
एडियाँ यूँ मत उठाओ कद बढाने के लिए ।
बैठने से जमीं पर आसमाँ मिलता नहीं ।।
तेज कर रफ्तार को अपनी तो मंजिल भी मिले ।
तू समंदर तैरकर तो पार क़र सकता नहीं ।
मैं झुलस के रह गया ये नफरतों की आग में ।
सींच देते प्यार तुम तो घर मिरा जलता नहीं ।।
देवेंन्द्र देशज
खैरा पलारी
देखता हूँ मैं जिसे वो तो मुझे देखता नहीं ।
पर उसी की बात करते दिल मिरा थकता नहीं ।
बोल देतीं दूर जाने के लिए खुद से मुझे ।
बोलकर सच छोड़ना तेरा मुझे खलता नहीं ।।
एडियाँ यूँ मत उठाओ कद बढाने के लिए ।
बैठने से जमीं पर आसमाँ मिलता नहीं ।।
तेज कर रफ्तार को अपनी तो मंजिल भी मिले ।
तू समंदर तैरकर तो पार क़र सकता नहीं ।
मैं झुलस के रह गया ये नफरतों की आग में ।
सींच देते प्यार तुम तो घर मिरा जलता नहीं ।।
देवेंन्द्र देशज
खैरा पलारी
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