कटखनी बिल्ली
हर गली हर -कूचाऐ ,शहर मजनूऐ- दीवानों की भरमार ,
ना हद में रहना ,
ना तहजीब से कहना ,
इंसानियत से कोई ,
लेना ना देना ,
कैसा है इश्क ?
कैसा है खुमार ?
सोच सोच के हम ,
हो जाते हैं बेजार ,
इश्क मोहब्बत प्यार ,
जैसे कोई व्यापार ?
अंधकूप में गिरने को ,
है सारे रोमियो तैयार ,
ना शख्सियत का ,
कोई ख्याल ?
ना बदजुबानी का ,
कोई मलाल ?
पल भर का तू बुलबुला ?
एक पल को सोच जरा ,
आखिर कितना गहरा तेरा प्यार ?
छोटो की तू आन रख,
बड़ो का तू मान रख ,
खुद को तू इंसान रख ,
इश्क की दिल्ली ,
बहुत दूर है ?
जीवन रूपी कटखनी बिल्ली ,
ऑख फाड़ कर घूरे ,
जीवन है छोटा सा मौका ,
यह अटल सत्य क्यू भूले ???
(चंद साॅसे )
स्वरचित् ✍🏻 कमल गर्ग
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