ग़ज़ल
रूह, दिल, धड़कन, तेरी क्यों काँपती है।जब भी तू मेरी वफ़ा को नाँपती है ।।
मैं दिया तो था तुझे अपना लहू दिल।
क्यों? तू फ़िर आँखों में सुरमा आँजती है।।
धड़कनों के सुर में है तेरी ये पायल।
लग रहा मेरे तू दिल में नाँचती है।।
मैं तेरे होंठो को जूंठा कर दिया क्या
आज-कल तू ज़ाम से लब माँजती है।।
जब निकलता हूँ मैं तेरे घर तरफ़ से।
तू बुलाने के इशारे खाँसती है ।।
तुझ पे किस के इश्क़ का जादू हुआ है
अब तू रातों में दीवारें लाँघती है।।
"दर्द" ख़तरा है मुझे महफ़ूज़ करिए।
हँस के अब सिंदूर मुझसे माँगती है ।।
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------✒Birendra Kumar Shaayar Premghan "DARD"
Mo. 8358872705 (Sidhi M.P.)


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