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कहानी भुलई दास की आत्मा.. kahani bhulai daas ki aatma

कहानी भुलई दास की आत्मा kahani bhulai daas ki aatma

बच्चों में बड़ा  उत्साह भरा  था। कारण आज तक कोई प्रधानाध्यापक नहीं था, आज नये प्रधानाध्यापक कार्य भार ग्रहण करने वाले थे। दूर से ही बच्चे शोर मचाने लगे
नये सर जी  आ रहे है। मैने भी बाहर निकल कर देखा तो बड़ा आश्चर्यचकित हुआ।  दुबली शरीर सावला रंग आंखें मस्तक मे धंसी हुई, आगे दो दाँत टूटे हुए, पिचका हुआ गाल चेहरे पर चेचक के दाग पड़े हुए थे। विद्यालय के प्रधानाध्यापक की जो कुर्सी वर्षों से खाली थी, उस पर आसीन हुए।

पहले  उनको ज्वाइन कराया गया। फिर हाल - चाल का दौर प्रारम्भ हुआ।

मैने पूछा सर - कहां से आये है अर्थात किस विद्यालय से,
उन्होंने कहा - पवभारी प्राथमिक विद्यालय में सहायक अध्यापक था। प्रमोशन करके यहाँ आया हूँ।

बच्चों ने पूछा - सर का क्या नाम है।
मै बताने  ही  वाला था कि वो बताया मेरा नाम लखराज है वैसे गांव वाले लखई कहते है।

बच्चों मे बड़ी उत्सुकता थी, सबने पूछा कहां रहेंगे सर।
उन्होंने बताया कि अभी चार महीने घर से आयेगें। बच्चों का मुख धूमिल पड़ गया। क्योंकि वो उनसे कोचिंग करना चाहते थे।

प्राथमिक विद्यालय पर्रोई का भौगोलिक स्थिति यह था कि चारो  तरफ बाग जिसमें दिन मे अँधेरा रहता था। एक विद्यालय भवन तथा एक अतिरिक्त कक्ष था। अतिरिक्त कक्ष विद्यालय के पीछे था, बाग से बिल्कुल सटा।

धीरे - धीरे  समय बीत गया, ठंडक बढ़ने लगी, दिन छोटा होतें चला जाता रहा था। बच्चों की उत्सुकता बढ़ती जा रही थी। अब वो दिन आ ही गया कि सर ने कहा हम कल से इसी विद्यालय के अतिरिक्त कक्ष में रहेंगे। हमसे उन्होंने पूछा सर यहां रहना कैसा पड़ेगा, मै तो सकपका गया और कहा-ठीक- ठीक - ठीक ही है सर। कुछ बच्चे कहे सर हम लोग आपसे पढ़ना चाहते है रात को। तो वह और खुश हो गये और कहा-खाकर कल साम से आ जाना मै भी आज रहने का बंदोबस्त कर लेता हूँ। लखई बहुत मन ही मन प्रसन्न थे कहां अकेले रहना पड़ता अब तो साथ बच्चे भी रहेंगे। कहा भी है "एक से दो भले"।

दूसरे दिन सारा सामान लेकर लखई पहुंच गये तथा अतरिक्त कक्ष में रख दिये। हमे तो भय उनका नहीं बच्चों का था जो रात को उनके साथ रहने वाले थे। साम हो गया बच्चे भोजन करके विस्तर कापी किताब रोशनी की व्यवस्था के साथ आ धमके। सबोने पहले से पुआल वहां डाला था उसी पर अपने - अपने विस्तर विछा लिये। सर का विस्तर दरवाजे के समीप लगा दिए। हम भी देर से वहाँ बैठे थे समय ज्यादा हो गया था। मास्टर साहब से विदा लेकर चल दिए।

सबेरे विद्यालय के समय के पहले ही मै वहां पहुंच गया।
दृश्य बड़ा ही गड़बड़ था। मास्टर साहब चादर के नीचे कराह रहे थे। मैने पूछा सर तबीयत तो ठीक है बच्चे भी दिखाई नहीं दे रहे हैं, उन्होंने कहा बाबू सब रात मे ही भग गये। यह कहकर आंखों मे आंसू भर लिए, मै और घबराया कहा बात क्या है साफ- साफ बताएं। उन्होंने कहा-जब सारे बच्चे सो गये तो कमरे मे चारोतरफ से खि-खि-खि-खि की आवाज गूंजने लगी, मै सोचा कि बच्चे हँस रहे है पर चादर मुख से हटाया तो सभी बच्चे गहरी निद्रा मे सो रहे थे वह आवाज़ भी खत्म हो गयी।
पुनः सोने की कोशिश कर रहा था तभी किसी के खड़ाऊँ की आवाज आने लगी, जो मेरे सीने पर चोट कर रही थी।मेरी धड़कन बहुत तेजी से बढ़ने लगी और आवाज कानों में गूँजने लगा। इतने में दरवाजे का फाटक खटाक की आवाज के साथ खुल गया। मै चादर मे अपना मुख और घुसेड़ लिया। क्या था पूरे कमरे मे गाजे का धूआँ भर गया। मै व्याकुल होकर मुख से चादर फेंक दिया तो देखता क्या हूँ - एक महात्मा केवल लंगोट पहने लम्बी शरीर आंखें धंसी हुई, एक हाथ मे लौकी की तुमड़ी लिए हुए, एक हाथ मे जलती हुई चिलम से कस खींचते तथा नाक के रास्ते धूआँ निकालते जैसे कोई ईट भट्ठे की चिमनी हो। आंखें क्रोध से लाल मस्तक पर भस्म लिपटा हुआ मानो मेरे लिए साक्षात यमराज हों। मेरा भय के नाते सारे कर्म कपड़े मे ही हो गया था। मै चरणों पर गिर पड़ा कहा महाराज मै कुछ नहीं जानता आप हैं कौन, तब उन्होंने कहा नीच दुष्ट नालायक मेरे स्थान पर सोने की हिम्मत कैसे की। मेरा नाम नागा भुलई दास है। यही स्कूल वालों ने मेरे जमीन पर जबरन स्कूल बनवाया मै अपने जमीन के लिए तड़प-तड़प कर मरा हूँ। अब तेरी खैर नहीं, चला है मेरा जमीन कब्जा करने यह कहकर वो गायब हो गये। तब मै बच्चों की तरफ देखा तो वहाँ से सभी बच्चे भाग चुके थे।

मै भी कहानी सुनकर हतप्रभ हो गया और वैसे नागा को गाँव का कौन नहीं जानता। मै पहले ही हिचकिचाया था जब वे रहने के लिए तैयारी बना रहे थे। मैने कहा सर क्या परेशानी है तब उन्होंने कहा - सीने में बड़ा ही भयंकर दर्द है। अंत में सर का दर्द बढ़ता ही गया कोई दवा से फायदा नही निकला। छः महीने में ही सर जी मुल्केअदम चले गये। उन्ही के जगह पर उनका बेटा नौकरी पाकर ज्वॉइन किया एवं दो ही दिन में यहां से स्थानान्तरण कराकर अपने गाँव के पास चला गया। वहीं सुख से रहने लगा।

।। कहानी।। स्व लिखित
                        मौलिक         ।। कविरंग।।
                                          सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)

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