‘कसक'
“व्यक्ति के अंदर स्वयं से टकराने की अहम भावना
जो उसके उत्तेजित स्वर द्वारा व्यक्त होती हैं वह हैं ‘कसक'
मनुष्य के असमर्थता का भाव समर्थता में प्रदर्शित करने की गतिविधि की क्रियान्वित विधि हैं ‘कसक'
वर्ग विहीन समाज की कल्पना में गतिशील मानव के विकास की बाधा में उत्पन्न होने वाले टकराव का भाव हैं ‘कसक'
धनलोलुपता निरीह जनता के शोषण के विरुद्ध
उठने वाली आवाज को दमन करती हुई रेखा में
प्रस्फुटित ना हो पाने वाला स्वर् हैं ‘कसम'
हृदय के उद्गार को स्वच्छंद रूप से अभिव्यक्त ना दे पाने का भाव हैं ‘कसक'
अपने और अपनों के बीच स्पष्ट दृष्टिकोण ना रख पाने का भाव हैं ‘कसक'
छल और प्रवचन में ऐश्वर्यवादी मनुष्य का दास बनने का भाव हैं ‘कसक'
सामंती व्यवस्था को देर तक ना सहन कर पाने का भाव हैं ‘कसक'
दंडनीय कार्यों का न्याय न कर पाने पर विधाता का आवाहन करने का भाव हैं ‘कसक'
स्वयं के आंतरिक द्वंद से जूझने की प्रक्रिया हैं ‘कसक'
राष्ट्रहित में धर्मनिरपेक्षता को स्वतंत्र रूप से प्रकट करने की क्रिया में लोगों द्वारा आती हुई प्रतिक्रिया में जागृत भाव हैं ‘कसम' ।।"
रेशमा त्रिपाठी
प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश।
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