धर्मक्षय
छल था शकुनी के पासों में,
पूरा लोक परिचित था।
द्रोपदी को लगाना दांव पर भी,
मगर कहां उचित था।
खामोश थे पितामह,
और बोल सके ना द्रोण भी,
महावीरों के दरबार में,
अबला खड़ी मजबूर सी,
धर्म और कर्म के सब,
विद्वान वहीं तो थे,
मगर कर ना सके,
जो प्रतिकार अधर्म का,
मैं कैसे मान लूं ,
सर्वश्रेष्ठ उनको,
जो बचा ना सके,
इक नारी के मान को।
कुछ थे शीश झुकाए,
कुछ अट्टहास करते,
हो गया था सारा,
दरबार ही जैसे,
निर्लज्जता की प्रतिकृति।
मैं स्वीकार नहीं कर सकता,
धर्मराज के धर्म को
ना अर्जुन ही योद्घा था,
किस काम का वो,
बलशाली भीम महाकाय,
जो देखते रहे अपनी ,
आंखों के समक्ष सबकुछ,
और तांडव करता रहा,
छल कपट भरे दरबार।
द्रोपदी को बचाने आ गए,
गोविंद ये सही है,
पर क्या वही इक दरबार,
भरा था ऐसे असुरों से?
कहां कहां गए होंगे,
भला गिरिधारी सोचो,
समय के अनुसार,
तय करना होगा धर्म,
पूर्वाग्रह सब छोड़कर।
ब्रह्मानंद गर्ग
जैसलमेर
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