कहत साधु महिमा सकुचानी
मानस मे संत चरित्र का वर्णन करते वक्त श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि- "ब्रह्मा, विष्णु और पंडितों की वाणी भी संतो की महिमा वर्णन करने में संकोच करती है वह मुझसे किस प्रकार नही कही जाती जैसे साग-सब्जी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते यथा-
विधि हरि हर कवि कोबिद वानी। कहत साधु महिमा सकुचानी ।।
सो मो सन् कहि जात न कैसे। साक बनिक मनि गुन गन जैसे।।
इस संसार में संतो का कोई मित्र-शत्रु नहीं होता जैसे अंजलि में रखे हुए फूल दोनों ही हाथों को सुगंधित कर देते हैं अर्थात जिन हाथों ने फूलों को तोड़ा है तथा जिसने उनको रखा है फूल दोनों ही हाथों को सुगंध से भरपूर देते हैं वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते है -
बंदऊ संत समान चित हित अनहित नहिं कोय।
अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोय।।
गोस्वामी जी ने अपने मानस में संत के महिमा का गान करते हुए कहते हैं कि -
संतो का चरित्र कपास के जीवन के समान शुभ है जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है अर्थात कपास की डोडी नीरस होती है संत चरित्र में भी विषयाशक्ति नहीं है इससे वह भी नीरस है। कपास उज्ज्वल होता है संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अंधकार से रहित होता है। इसलिए यह विशद होता है कि कपास मे गुण तंतु होते हैं तथा संत का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है इसलिए वह गुणमय है। जिस प्रकार कपास द्वारा निर्मित धागा सूई के छिद्र को अपना तन देकर ढक देता है अथवा कपास लोढे़ जाने, काते जाने, और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र रूप में परिणत होकर दूसरे के गोपनीय स्थानों को ढकने का कार्य करता है उसी प्रकार संत स्वयं दुख सहकर दूसरे के छिद्रों (दोषों) को ढक देता है। जिसके कारण संत को जगत में वन्दनीय यश प्राप्त है यथा -
साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस विशद गुनमय फल जासू।।
जे सहि दुख पर छिद्र दुरावा। वंदनीय जेहि जग जस पावा।।
अरण्य काण्ड मे देवर्षि नारद जी ने भगवान श्री राम जी से संत लक्षणों के बारे मे प्रश्न किया है तो उसके उत्तर में श्री राम जी कहते हैं कि -
गुनागार संसार दुख रहित विगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह।।
और भी -
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं।।
सम शीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल स्वभाव सबहिं सन् प्रीती।।
संत सदा जप, तप और नियम मे रत रहते हैं -
जप तप व्रत दम संयम नेमा। गुरु गोविंद विप्र पद प्रेमा।।
श्रद्धा क्षमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया।।
गोस्वामी जी कहते हैं कि संत दंभ, अभिमान और मद कभी नहीं करते तथा कुमार्ग पर भूलकर भी अपने पाँव नहीं रखते-
विरति विवेक विनय विज्ञाना। बोध जथारत वेद पुराना।।
दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊं।।
गोस्वामी जी ने कहा है कि संत सदा भगवान के लीलाओं का श्रवण तथा गान करते हुए विचरण करते हैं उनके गुणों को स्वयं सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते हैं -
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला।।
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते।।
उत्तरकाण्ड में श्री हनुमान जी ने भरत के विषय में प्रश्नों के माध्यम से भगवान श्री राम जी से संत के लक्षणों के विषय में पूंछा है तो श्री राम जी उसके उत्तर मे कहते हैं कि - "जैसे कुल्हाड़ी चंदन को काटती है क्योंकि कुल्हाड़ी का स्वभाव ही वृक्षों को काटना है किन्तु चंदन का स्वभाव सुगंध देना है तो वह निज स्वभाव वस कुल्हाड़ी को भी अपने सुगंध से सुवासित कर ही देता है यथा -
संत असंतन्हि कै असि करनी। जिमि कुठार चंदन आचरनी।।
काटइ परसु मलय सुनु भाई। निज गुन देइ सुगंध वसाई।।
परंतु साधु अपमान का दंश तो झेलना ही पड़ेगा। अपने गुणों के कारण चंदन देवताओं के सिर पर चढ़ता है और जगत प्रिय रहा है तथा कुल्हाड़ी अपने अवगुण के कारण आग की दाहकता में उसके मुख को जलाकर घन से पीटा जाता है यथा-
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग वल्लभ श्री खंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु वदन यह दंड।।
बारम्बार गोस्वामी जी ने जगत को जनाने का भरसक प्रयास किया है कि संत विनम्र होते है तथा अपने पथ से विचलित नहीं होते हैं -
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रान प्रिय गुन मंदिर सुख पुंज।।
गोस्वामी जी ने अपने ग्रन्थ रामचरित मानस मे संतो की पहचान करने के लिए निकष प्रदान किया है -
"मम गुन गावत पुलक शरीरा। गदगद् कंठ नयन बह नीरा।।"
संत सिरोमणि कबीरदास जी ने संत लक्षण की ओर इंगित करते हुए कहा है कि -
साधू ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे थोंथा देइ उड़ाय।।
नारद भक्तिसूत्र में भगवान अपने श्री मुख से कहा है कि मै यत्र-तत्र नहीं रहता मै जहां मेरे भक्त मेरा कीर्तन करते हैं वहीं निवास करता हूँ -
"नाहीं वसामि वैकुण्ठे नाहं योगीनाम् हृदयेन् च।
यत्र मद्भक्ता गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।" ना0 भ0
इस प्रकार भारतीय साहित्य मे संतो के महिमा का गुणगान किया गया है मै अपने अल्पमति से उनके गुणों के वर्णन करने का दुस्साहस किया हूँ। आज संत के गुणों के वर्णन का सम्पूर्ण श्रेय हमारे परमादरणीय श्री संतराम पाण्डेय जी को जाता है क्योंकि आपके नाम के आगे "संत "शब्द जुड़ा है और वह भी संत कैसा? उत्तर हम पाते है "राम" जैसा। वास्तव में जो भी गुण संत के वर्णित हैं लगभग वे सभी गुण एकत्र देखने हो तो हमारे पाण्डेय जी मे विद्यमान हैं। हम आपके परम पूज्य माता - पिता को भी वंदनीय मानते हैं जो कितने विवेकपूर्ण नाम का चयन किये। हम उनके पद पंकजों का बारम्बार वंदना करते हैं। लोग इसे अत्युक्ति न मानें क्योंकि 383 सेना मे मरे हुए जवानों के खोपड़ियों का अध्ययन करके लोम्ब्रोसो ने कहा - "चित्र चरित्र का प्रतीक होता है।" तो जिसे संदेह हो वो हमारे पाण्डेय जी के चित्र को देख ले जिसमें "सादा जीवन उच्च विचार" परिलक्षित हो रहा है। अन्त में दो शब्द -
राम सरीखे संत तुम्ह यामे नहि मति भंग।
तव जनकहि पद सादरहि विनवउ अति कविरंग।।
स्व लिखित मौलिक ।। कविरंग।।
पर्रोई - सिद्धार्थ नगर (उ0प्र0)

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