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तार से भेजी रखी

तार - तार राखी 

लघुकथा 

" सुनो मेरे हमसफ़र , पाँच रुपये का लिफाफा पोस्ट आफिस से ले आना ।  भाई तो नहीं रहे । उनके अंश को महसूस हो कि त्योहार उठाने के लिए रक्षाबंधन पर  राखियाँ बुआ ने भेजी है । ''
नहीं , तुम लिफाफे से नहीं  बल्कि रजिस्ट्री से भेजो । जिससे वे यह न कह सकें हमें मिली नहीं ।    ठीक है । इन राखियों की तुम रजिस्ट्री कर देना । " 
 " यह लो रसीद ।तुम  व्हाट्सएप पर  उन्हें रसीद की फोटो भी डाल दो । उन्हें मालूमहो जाएगा कि तुमने राखी भेज दी है । "
चार दिन बाद ननद ने  भाभी को फोन किया 
" भाभी राखी मिल गयी क्या ?" 
" नहीं , जब आएगी तो हम खबर जरूर करेंगे ।"
 सात दिन बीत गए । फोन नहीं आया । ननद ने फोन लगा के पूछा ," भाभी राखी  मिली क्या ?
आएगी तो बताएंगे । "
" लेकिन आन लाइन से पता लगा है कि चार दिन पहले ही आपके पास  पहुँच गयी है । "
" रिश्ता तो तुम्हारे भाई चला रहे थे ।  " 
"ओह!  भा  ..भी   रिश्ते के संग मूल्यों को तार- तार कर दिया।    नाल के रिश्तों टूटता देख मौन आवाज की रूह काँप उठी।  "
 डॉ मंजु गुप्ता 
वाशी , नवी मुंबई ।

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