हवन करते हाथ जले
सपना हर कोई देखता है, कुछ सपने बड़े प्यारे होते हैं, कुछ डरावना होता है तो कोई-कोई सपना बड़ा अजीब होता है। रात मैंने एक अजीबोगरीब सपना देखा।
मुझे पुस्तक पढ़ने का चस्का कब से लगा ये तो मुझे भी नहीं पता, लेकिन बचपन में चंदामामा, चंपक, बालक, पराग, अमरचित्र- कथा, मनोज चित्र-कथा इत्यादि पढ़ने में बड़ा मजा आता था औऱ इनके पात्र मेरे दिमाग में बोलते-बतियाते रहते थे। समय के साथ मैं बड़ी हुई और ससुराल में साहित्यिक पुस्तकों का अम्बार मिला, परन्तु पढ़ने का समय न था, फिर तो नींद के साथ समझौता शुरू हुआ। धीरे-धीरे पुस्तक पढ़ने का नशा गहराने लगा। जब मैं एम.ए. मे थी तो दलित विमर्श, नारी विमर्श, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, इत्यादि विषयों पर कई पुस्तकों की चर्चा पाठ्यक्रम में थी, परन्तु पढ़ने का समय औऱ पुस्तकों की उपलब्धता का अभाव था। मैं जमशेदपुर के केंद्रीय पुस्तकालय का सदस्य बन गई और पाठ्यक्रम में जिन-जिन पुस्तकों की चर्चा थी, उन सबको पढ़ना शुरू किया। चूँकि दुख से मेरा गहरा रिश्ता रहा है, इसलिए इन पुस्तक के पात्रों के दुख मेरे अपने हो जाते थे और मैं इनके दुख में भींगती रहती, उनकी संवेदना से संवेदित होते रहती। सीता का भूमि प्रवेश हो, या उर्मिला की विरह वेदना, यशोधरा का विलाप हो या द्रोपदी का दांव पर लगाना, उषा प्रियंवदा की सुषमा की छटपटाहट या वाना की उन्मुक्तता, मैत्रियी पुष्पा के सारंग का संघर्ष हो या धर्मवीर भारती की सुधा की आत्माहुति, पुस्तकों के पात्रों की पीड़ा वर्षों तक मेरे जेहन में छटपटाती रहती। साहित्य से लगाव बढ़ता गया और अब संवेदित करने वाली पुस्तक पर मैंने अपनी पाठकीय प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दी। पुस्तक के पात्रों के साथ मेरी संवेदनाएँ बढ़ती गयी। कुछ पात्र तो इतने प्रभावी थे कि उसके पात्र जीवंत रूप में मेरे अवचेतन मन से बात करने लगे। उनके शब्द-शब्द मेरे मस्तिष्क में चीखने-चिल्लाने लगे। उसकी पीड़ा मेरे अन्तस में घनीभूत होती गयी और मैं उसके दुख से विचलित होने लगी। उसकी पीड़ा मेरी छटपटाहट बढाती गई और मेरी आत्मा व्यथित रहने लगी। पात्रों की पीड़ा औऱ छटपटाहट दूर करने के लिए मैंने शान्ति यज्ञ का अनुष्ठान करने की कोशिश की। परन्तु यज्ञ में हवन शुरू होते ही मेरे हाथ झुलसने लगे और शब्द चीख-चीख कर बाहर आने लगे। वे सभी मुझसे कहने लगे, मेरे दर्दों को छीनने की कोशिश करने वाली तुम कौन हो?? क्यों मेरा दर्द मुझसे छीन रही हो, यही मेरा सर्वस्व है...औऱ सभी पात्र ने मिलकर मुझे हवन कुंड में झोंक दिया। हवन कुंड मुझे बुरी तरह झुलसा रहा था और सारे साहित्यिक पात्र मेरे चारो ओर अट्हास कर रहे थे, औऱ कह रहे थे मुझे इन दर्दों के साथ जीना अच्छा लगता है। मैं हवन कुंड में बुरी तरह झुलस रही थी और पीड़ा से छटपटा रही थी। अग्निकुंड से निकल कर भागने की भरपूर कोशिश कर रही थी परन्तु वे सभी मुझे उसमें झोंके हुए थे। भला हो अलार्म का जो जोड़-जोड़ से मोबाइल में बजने लगा औऱ मेरी नींद खुल गयी। मैं पसीने से लथपथ थी, गला प्यास से सूख रहा था, मेरा सारा शरीर हवन कुंड की गर्मी की तपन महसूस कर रहा था। लगता है मुझे अब इस साहित्य से तौबा कर लेना चाहिए, ताकि न मैं साहित्य पढूंगी न ही इन साहित्यिक पात्रों की पीड़ा मुझे परेशान करेगी।
डॉ० विभा माधवी
खगड़िया
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