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जब मैं मंच पर खड़ी थी मेरे सच्चे भाव

जब मैं मंच पर खड़ी थी मेरे सच्चे भाव

जब सर्व प्रथम स्टेज गई मै
सिकुड़ी भौह डरी सहमी मैं
अकुलाती आंखों से देखा
पीछे बैठा हुआ संपूर्ण मेला

आतुर थी कुछ कहने को
कविता से मंत्र मुग्ध करने को
आखिर हुआ वहीं जो अंदेशा था
कपते अधरों से मैंने बोला था

कवियों सा ध्यान धरो मुझ पर
वाह कहों एहसान करो मुझ पर
भावों का भान  तुल्य लेना
हर पंक्ति को उचित मूल्य देना

सहज पंक्ति में बात शुरू की
फिर मैंने कविता की गुरु की
शांत सभा सब शन्न पड़े थे
मानों मरघट में अन्य खड़े थे

मैने बुझा अगला मुक्तक
सब जनो स्वयं हो गए व्यस्त
अब कुछ भी कहने की शक्ति न थी
लगता मेरी कविता में युक्ति न थी

इस प्रकार जन में मैंने बात रखी
कविता और गजल दोनो ही साथ रखी
फ़र्क पड़ा हो या न जन को जन में
संतुष्ट भई मंच पर  मन ही मन में
              

   परिचय = नेहा शुक्ला
                (  डी एल० एड० )   छात्रा 
(उन्नाव) , उत्तर प्रदेश

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